अभिनेता संदीप शर्मा से डॉ तबस्सुम जहां की बातचीत…

डॉ तबस्सुम जहां

बॉलीवुड जगत में संदीप शर्मा ने काफ़ी काम किया है। अपनी गज़ब की अभिनय क्षमता और निर्देशन से उन्होंने बहुत कम समय में बॉलीवुड जगत में अपनी पहचान बनाई है। हरियाणा के एक छोटे से ज़िले जींद से होते हुए मुंबई तक के सफ़र में संदीप शर्मा ने अनेक बड़े एक्टर, डायेरक्टर के साथ काम किया है।

बतौर एक्टर उन्होंने महेश भट्ट की फ़िल्म ‘तमन्ना’, अज़ीज़ मिर्ज़ा की शाहरुख खान, जूही चावला अभिनीत फ़िल्म ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’,  ई. निवास के साथ फ़िल्म ‘दम’ मे, अनुराग बासु के साथ साया में काम किया है। इनके ही साथ बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर फ़िल्म  ‘गैंगस्टर’ तथा ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो’ में भी काम किया है। रवि राय के साथ इन्होंने बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर दो फिल्मों ‘अंजाने’ तथा ‘दिल दिया चोरी चोरी’ में काम किया है।

संदीप शर्मा ने छोटे पर्दे पर भी अपनी ऐक्टिंग का जलवा दिखाया है। बतौर एक्टर इनका पहला सीरियल 1994 में आया जिसका नाम था ‘इम्तिहान’। उस समय का यह हिट सीरियल था और उसमे किरदार का नाम भी संदीप था। मज़े की बात यह है कि संदीप शर्मा ने इम्तिहान में अस्सिटेंट डायरेक्टर की भूमिका भी निभाई थी। इसके बाद उन्होंने सीरियल शतरंज, गैम्बलर, हिना, रेत के दरिया, जाने क्या बात हुई, मीत, हैलो इंस्पेक्टर, क्षितिज, थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है, गोपाल जी, सवेरा जैसे उम्दा सीरियल में भी काम किया। इन्होंने केवल हिंदी ही नहीं बल्कि मराठी फिल्म ‘निवास’ में एक्टर के तौर पर श्याजी शिंदे जी के साथ काम किया। इनके डायरेक्शन में बनी पहली हिंदी फ़िल्म ‘नंगे पांव’ शानदार फ़िल्म है। इनकी हरियाणवी फ़िल्म ‘सतरंगी’ को बेस्ट हरियाणवी फ़िल्म का नेशनल अवार्ड भी मिल चुका है।

बातचीत…

डॉ तबस्सुम – जींद जैसे छोटे से ज़िले से लेकर मुंबई तक का सफर आपका कैसा रहा। एकाएक कैसे आपके मन मे आया कि मुझे भी अभिनय के क्षेत्र में जाना चाहिए?

संदीप शर्मा- सच कहूं तो मेरा सफर बहुत हसीन रहा है। मेरी बचपन से ही ख़्वाहिश थी कि मैं फिल्मों में जाऊं। मेरे अंदर का कलाकार बचपन से ही मेरे अंदर दिखता था। हरियाणा की औरतें जब ‘सांझी’ त्यौहार या अन्य किसी अवसर पर नाचा करतीं तो हम भी बीच-बीच मे जाकर नाचा-कूदा करते थे और शादियों में भी नाचते थे। पढ़ाई में, मैं उतना कामयाब छात्र नहीं रहा तो उस वजह से स्कूल में होने वाले कल्चरल प्रोग्राम में हिस्सा लेना मुश्किल होता था इसलिए स्कूल के दौरान मैंने इस प्रकार का कुछ नहीं किया लेकिन मैट्रिक के बाद मुझे घर से यानी बड़े भाई की तरफ से थोड़ी फ्रीडम मिली कि मैं अब कल्चरल प्रोग्राम में हिस्सा ले सकता हूँ। तब मैंने पहली बार रामलीला में हिस्सा लिया। मुझे पता चला कि चंडीगढ़ पंजाब यूनिवर्सिटी के इंडियन थियेटर में ड्रामा पढ़ाया जाता है और उसमे मास्टर डिग्री भी है,मैंने उसे जॉइन किया और मास्टर करने के बाद मुंबई चला गया। मुंबई में मुझे अच्छे और सिखाने वाले लोग मिले। मैं गया तो था एक्टर बनने के लिए पर वहाँ मैंने अपने गुरु से राइटिंग, डायरेक्शन और प्रोडक्शन भी सीखा और उसी आधार पर मैं अपनी फ़िल्म ‘सतरंगी’ बना पाया।

डॉ तबस्सुम – बॉलीवुड में आपने एक लंबा अरसा जिया है। वहाँ आपने फ़िल्म जगत से जुड़े तक़रीबन हरेक क्षेत्र में काम किया है। उससे जुड़ा आपका संघर्ष कैसा रहा?

संदीप – फ़िल्म इंडस्ट्री में मेरी जो यात्रा रही है उसको मैं संघर्ष नहीं मानता, क्योंकि जो इंसान अपनी ख़्वाहिशों को जीना चाहता है उन ख़्वाहिशों को पूरा करना मेरी नज़र में संघर्ष नहीं है। जो अनवॉन्टेड चीज़े लाइफ़ में आ जाती हैं उनसे निपटने को मैं संघर्ष मानता हूँ। फ़िल्म लाइन तो बचपन से ही मेरा ख़्वाब रहा है और मैं जब उस सपने को संजोने गया तब मैंने उसका बहुत आनंद लिया इसलिए मैं कभी उसको संघर्ष नहीं कहता। मेरा फिल्मी जीवन बहुत हसीन रहा है वहाँ जब मैं अपने गुरु रवि राय जी से मिला तो उनसे काफ़ी कुछ मुझे सीखने को मिला इसके अलावा इंडस्ट्री में जितने भी लोग मिले लाजवाब मिले। ईश्वर ने सदा मेरा साथ दिया है। वहाँ मेरी राहें आसान होती गईं। हाँ, धूप छाँव हर किसी की ज़िंदगी में आती है मेरी भी ज़िंदगी मे आई लेकिन मैं धूप छाँव के खेल से पार उतरा हूँ अपनी जीवन संगिनी पूनम के साथ। मैं भगवान का शुक्र अदा करता हूँ कि मेरा फ़िल्म लाइन का जीवन बहुत अच्छा रहा है।

डॉ तबस्सुम – बॉलीवुड में इतने सफल होने के बाद आपको पुनः हरियाणा वापसी ख़्याल कैसे आया जबकि हरियाणा में इस क्षेत्र में लंबी अवधि तक कोई काम नहीं हुआ था।

संदीप – मैं जब सितंबर 92 में मुंबई गया था उस वक़्त मेरे दिल में बहुत उमंग थी कि यह लाइफ़ बहुत कमाल की है लेकिन वहाँ रहने के 2-3 साल बाद ही यह एहसास भी होने लगा कि मेरी जो रिटायमेंट लाइफ़ है वो मुंबई में नहीं होनी चाहिए। 2015 में जब मैं अपनी फ़िल्म ‘सतरंगी’ की शूटिंग करने आया था तब बड़े भाई साहब ने मुझे बोला कि तुम भाईयों और बच्चो के बाहर जाने के बाद वो अकेले रह गए, तब मैंने उनसे उनके साथ रहने का वादा किया। कोविड से उपजी ज़िंदगी की कशमकश का मुझ पर ऐसा असर हुआ कि मैंने अपनी ज़िंदगी बड़े भाईसाहब के साथ बिताने का निश्चय किया। पर मुझे लगता है कि मैं यहाँ अधिक समय तक टिक नहीं पाऊंगा। देखते हैं ऊपरवाले ने आगे मेरी ज़िंदगी मे क्या बदलाव किए हैं। यहाँ रहकर बतौर एक्टर मैंने दो फिल्में की- 1600 मीटर जिसमें मैं मुख्य किरदार में हूँ और दूसरी फिल्म है फौजा।

डॉ तबस्सुम  – आपने बड़े-बड़े एक्टर, डायरेक्टर के साथ काम किया है। अनुभव कैसा रहा?

संदीप- मेरी ज़िंदगी में जो कुछ हुआ है बहुत अच्छा हुआ है। महेश भट्ट साहब के साथ मेरा एक ख़ास रिश्ता था। मेरे एक सीनियर हैं हरविंदर मलिक जिनको फ़िल्म लाइन में अपना गाइड मानता हूं वो भट्ट साहब के अस्सिटेंट हुआ करते थे और मैं उस वक़्त एक्टिंग के लिए  ट्राई कर रहा था। उस वक़्त भट्ट साहब की जहाँ भी शूटिंग होती मैं वहाँ पहुँच जाता था और जाकर एक कोने में खड़ा हो जाता था। वहाँ मैं सिर्फ़ भट्ट साहब को देख रहा होता था। उस वक़्त वे नसीरुद्दीन साहब के साथ ‘सर’ फ़िल्म की शूटिंग कर रहे थे। मैं देखता कि वे कैसे नेरेशन करते हैं। किस तरह से सबको मोटिवेट करते हैं सैट पर। भट्ट साहब का बहुत प्रभाव है मुझ पर। जिस तरह से वे समझाते हैं, मैं भी उसी  तरह से समझाने की कोशिश करता हूँ। अनुराग बासु का भी मुझ पर काफ़ी प्रभाव रहा है वे किस तरह से सीन डिज़ाइन करते हैं वो मैंने उनसे सीखा। मेरे गुरु रवि राय से ‘लाइन’ को कितने आराम से बोलना है और किस तरह ज़िंदगी का फ़लसफ़ा अपनी लाइनों में लाते हैं वो मैंने सीखा। जब मैं डेली सोप कर रहा था तब मैंने प्रोडक्शन सीखा कि कैसे कम बजट में हम अच्छे से अच्छा अचीव कर सकते हैं और इन सब चीजों का ही रिज़ल्ट था मेरी फ़िल्म सतरंगी।

डॉ तबस्सुम- हरियाणवी फ़िल्म ‘सतरंगी’ के लिए आपको नेशनल अवार्ड मिला है। फ़िल्म के विषय मे कुछ बताएं?

संदीप – हरियाणवी फ़िल्म ‘सतरंगी’ को 2016 में 63वां बेस्ट हरियाणवी फ़िल्म का अवार्ड मिला है। यह फ़िल्म एक बाप-बेटी के रिश्ते पर आधारित है। हरियाणा जहाँ भ्रूण हत्या उस वक़्त परचम पर थी तो कैसे एक बाप पत्नी के गुज़रने के बाद अपने दो बच्चों को पालता है? कैसे एक बेटी को पढ़ाता-लिखाता है। बेटी जब पढ़ लिख कर समझदार बनती है तब कैसे वो अपनी कंपनीशिप देती है। जब बेटी को पता चलता है कि माँ भी चाहती थीं कि पिताजी दूसरी शादी करें और जब ऐसा वक़्त आ गया कि पिताजी को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता तब अपनी शादी के चार दिन पहले ही वो डिसाइड करती है कि अपनी शादी पोस्टपोन करके पहले पिताजी की शादी कराई जाए। इस चक्कर में उसकी ख़ुद की शादी टूट जाती है लेकिन फिर भी वह अपनी एम बी ए की जॉब छोड़ कर अपने पिता के साथ रहती है। ऐसे में उसके भाई का बदला हुआ स्वार्थी रूप सामने आता है और वो पिता को छोड़कर मुंबई में सैटल होना चाहता है इस प्रकार के परिवेश में यह फ़िल्म बनती है। आज के कल्चर और युवा पीढ़ी को ध्यान में रखकर यह फ़िल्म बनी है

डॉ तबस्सुम  – सतरंगी के बाद अब हरियाणवी फ़िल्म दादा लखमी को भी नेशनल अवार्ड मिला है। हरियाणवी सिनेमा में आगे किस प्रकार की संभावनाएं देखते हैं आप?

संदीप – नेशनल अवार्ड मिलना बहुत बड़ा अचीवमेंट है। हरियाणवी सिनेमा के लिए दादा लखमी को मैं एक ऐसा माध्यम मानता हूँ कि हरियाणवी सिनेमा के पटल पर इस फ़िल्म से ऑडियंस का रुझान बन जाएगा। ईश्वर न करे यदि ऐसा कुछ हुआ कि दर्शक नहीं जुट पाए तो फिर मेरे ख़्याल से बड़ा मुश्किल होगा हरियाणवी सिनेमा को जागृत करना। क्योंकि दादा लखमी ऐसा सेंसेटिव सब्जेक्ट है जो यशपाल शर्मा जी ने बनाया है यह एक बायोपिक है। लेकिन दादा लखमी की ज़िंदगी के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं या उनको जानने वाले अब कम बचे हैं। आगे की जो जनरेशन है उनके लिए सूर्य कवि दादा लखमी को जानना बहुत ज़रूरी है। मैंने भी कई बार यह फ़िल्म देखी है और हर बार यह फ़िल्म कुछ न कुछ नया सिखा कर जाती है। बहुत सारी चीज़ें हैं फ़िल्म के अंदर जो आपको रोमांचित कर देंगी कि ऐसा भी पैशन था। उस वक़्त ऐसा भी लोग करते थे। मुझे दादा लखमी से बहुत बहुत उम्मीदें हैं कि दादा लखमी सच में हरियाणवी सिनेमा के दृश्य को बेहतरी में बदलेगी और बेहतर तरीके से बदलेगी।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *