डॉ. गरिमा मिश्र “तोष”
अंग्रेजी साहित्य में एमए, लेकिन रचनात्मकता और मन के भावों को हिन्दी साहित्य में बखूबी व्यक्त करती हैं, अपने लेखन को सदैव वास्तविकता की सतह और कल्पनिकता के सौंदर्य के बीच बखूबी संतुलित रखती हैं। अतः वो केवल लिखने को नहीं लिखती.. वो लिखती हैं क्योंकि वो जीती हैं ।
आज मन कहीं में शक्ति पर्व ,उपासनाऔर उससे जुड़े हुए अनुभवों पर कुछ लिखूंगी…एक स्त्री होते हुए शक्ति स्वरूपा हो कर .. सोचती हूं कि सनातन सभ्यता में शक्ति की उपासना को इतना महत्वपूर्ण क्यों रखा गया और रखा गया तो कोई न कोई कारण तो रहा ही होगा ना जैसा कि सभी समझते हैं जानते हैं कि प्रकृति एक स्त्रीलिंग शब्द है और शक्ति भी एक स्त्री ही है तो प्रकृति और शक्ति दोनों ही एक दूसरे के लिए कहना चाहिए साथी हैं समतुल्य हैं मेरे बहुत सोचने पर भी मुझे इन दोनों का कोई निदान या वैकल्पिक विकल्प दिखाई नहीं देता प्रकृति की जगह कोई नहीं ले सकता और शक्ति की जगह भी कोई नहीं ले सकता कितना ही सामर्थ शाली कोई क्यों ना हो या किसी में कितनी ही कमजोरी क्यों ना हो उसके जीवन की महत्ता उसके जीवन की उपयोगिता शक्ति को साधना ही है …वह शक्ति जो संपन्नता,सौभाग्य और शुचिता को धारती हुई आने वाली संतानों को उन्नत करती है, ऐसे शक्ति संधान को तत्पर सभ्यता अब पूरी तरह शक्ति का दुरुपयोग,निरादर और अपव्यय करने में संलग्न है तो हम कहते हैं की यह साधना पर्व है शक्ति का पर्व है मेरे अनुभव से और मेरे विचार से जीवन तो पूरी तरह से शक्ति का साधना या अनुभूति का पर्व है किन्ही महीनों में मात्र मां की आराधना करते हुए शक्ति को साथ लेने के इस प्रयोजन आयोजन को मैं शिरोधार्य करते हुए अपने जीवन में सतत शक्ति की आराधना और मां की उपासना को महत्व देती आई हूं प्रकृति मां मेरी अपनी जननी मां ,धरती मां हर जगह मां और शक्ति एक है ये दोनों विलग हो ही नहीं सकते क्योंकि दोनों ही एक ही सिक्के के दो रूप हैं शक्तिशाली है शक्ति है तो मां है ,मां है तभी शक्ति है इसके गहन अर्थ में अगर आप जाकर देखेंगे तो मा ही है इस जीवन की शक्ति इस प्रकृति की शक्ति इस धरती की शक्ति ।
धरती मां जब अपने भीतर करोड़ों भार को रखकर उसके बदले में औदार्य से जो भी हमको देती हैं चाहे फल के स्वरूप में खनिज के स्वरूप में वह हमारी शक्ति को बढ़ाता है वैसे ही प्रकृति मां सैकड़ों वर्षो से अपनी सृष्टि के साथ पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ जब हमें कोई भी जीवंत वस्तु देती हैं खाद्य के स्वरूप में हवा के स्वरूप में रोशनी के रूप में ,फलों के स्वरूप में आश्रय के स्वरूप संबंधों के स्वरूप में में तो हमें समझ में आता है कि यही है जो हमारी धुरी है ,तो आज शक्ति के इस साधना पर्व में मुझे एक ही बात समझ में आती है कि चाहे अष्ट सिद्धियां हो या नव निधियां हो सब कुछ मां से ही है मां की आराधना और उपासना से ही है ।
अब प्रश्न उठता है कि मां, देवी दुर्गा मां ,या धरती मां तो मुझे लगता है कि यह सारी शक्तियां हमारी जननी मां में आ जाती हैं और वह हमें अच्छे सच्चे सद्गुणी और तपस्वी मनस्वी के स्वरूप में डालकर परिष्कृत करते हुए संसार में आनंद और सत्य के साथ जीने का मार्ग दिखाती हैं ..
मैं तो बचपन से अपने आसपास की मातृ ऊर्जाओं को साधते हुए मनन करते हुए अनुसरण आराधन करते हुए आज इस स्थिति में जब 50 वर्ष की होने जा रही हूं देखती हूं तो यह ऊर्जा यह शक्ति ही तो है जो आज यहां तक ला करके खड़ा कर सकी है मुझे …फिर वह चाहे मेरी पर नानी नानी ,दादी ,मां ,सासू मां, बहन ,भाभी ,पुत्री , सहेली के स्वरूप में मिली मै अपने जीवन में जिस तरह नौ देवियों के स्वरूप में 9 भागों के रस में रची बंधी मेरी स्त्री शक्तियों को अपने बीते हुए काल अवधि में पाती हूं तो सहज ही असीम के गुण स्वरूप को अनुभव कर सकती हूं ,शक्ति के संधान की महत्ता को अनुभव कर सकती हूं।
पर इस बार के शक्ति पर्व में मैं कुछ विचार मनुष्यता के मानसिक धरातलों पर हुए असंख्य बदलाव और पतन पर कर रही हूं ,सतत कई वर्षों से मानवीय व्यवहार पर हुए बदलावों में मैने सबसे अधिक कलयुगी संतानों का अपनी जननी के प्रति परिवर्तित भाव को देखा है और दुखी हुई हूं ,इसलिए नहीं की उन्होंने अनादर किया अपनी मां का,बल्कि इसलिए की उन्होंने नौ महीनों के सृजन प्रक्रिया को , मां के असीम समर्पण त्याग को गाली दी हो.. वैसे भी हमारे पुरुषसत्तात्मक समाज में गालियां भी मां बहन की ही बनी हैं:इस कटु सत्यको हम जानते बूझते भी मातृ शक्ति की उपासना मूर्त स्वरूप में ही कर के अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ कर जीती जागती मातृ शक्ति चाहे वह बहु हो बेटी हो मां हो बहिन हो मित्र हो सास हो उसका सतत अनादर , अपमान और उपेक्षा करते हुए तनिक भी नही झिझकते हैं,हैं ना कितनी बड़ी विसंगति, जिस तरह नौ दिन हम देवी के नौ स्वरूप को पूजते हैं ,उत्सव मनाते हैं उसी तरह हमको अपने नौ अनुभूत स्वरूपों को सार्थक करने की यात्रा में अपनी जननी के अनेकों उपकारों में से एक प्रमुख उपकार अपने उदर में नौ माह रख कर हमको पूर्ण स्वरूप प्रदान कर के जन्म देना उस भाव को पूजा,माला,ध्यान जप तप से भी ऊपर मानना आरंभ कर देना चाहिए ये मेरी अपनी निजी सोच है जोकि मेरे परिवार में मैने अपनी संतानों को तो बहुत गहरे बो दी है और विश्वास है मुझे की वो इस मर्यादित भाव को पूरी निष्ठा से निभायेंगे।उसके बावजूद मेरा मानना यही है कि समाज में परिवर्तित कालखंड के बावजूद एक अवधारणा हमें रखनी ही चाहिए कि स्त्री शक्ति चाहे वह सृजनात्मक हो साधना के लिए हो या मानसिक परिवर्तन के लिए हो उसकी उपासना को महत्व देना ही हमारे जीवन का अभिन्न अंग होना चाहिए और मुख्य ध्येय,मां को पूजा जाना और मां को सब कुछ मानना उसमें थोड़ा सा अंतर होता है, और उसी अंतर को यदि हम समझ ले तो सामर्थ सफलता सहजता सरलता और शक्ति सभी प्राप्त कर सकते हैं ।
प्रकृति के नियंत्रण से लेकर विध्वंस तक शक्ति ही है जो कार्य करती है और उस शक्ति के सबसे सुंदर और सहज सरल और समक्ष स्वरूप को मैं मा ही मानती हूं वह जननी जिसने हमें अपने रक्त मज्जा से जन्मा या 9 माह अपने गर्भ में रखकर इस जीवन में प्राणवायु ला सकने का अधिकारी बनाया ,उसके सम्मान उसकी शांति उसकी प्रसन्नता का पूरी तरह से निर्वहन हमको करना चाहिए ऐसा मुझे लगता है तो शक्ति की उपासना का पर्व मेरे लिए सतत सारे जीवन है, मेरी आखरी सांस तक है क्योंकि यह सांसे भी मुझ पर ऋण है मेरी मां के दूध का तो मैं मनकही में आप सभी को यही एक बात बताना चाहूंगी बिना किसी श्लोक के उदाहरण बिना किसी अवधारणा विचार को साझा किए अपने मन की बात कहती हूं कि शक्ति मां के सानिध्य और आशीष से संवर्धित होती है बढ़ती है और प्राप्त की जा सकती है सारे संसार में यही एक माध्यम है हर धर्म में और उसकी पूजा उसका सम्मान हमारे लिए हर पूजा और हर आयोजन से ऊपर होना चाहिए तो मां के शक्ति संधान के पर्व के समय में सब को शुभकामनाएं देते हुए यही चाहूंगी कि हमें अपने जीवन में मरण तक जीवन में जीवंतता को बनाए रखने के लिए अपनी मां की ही आवश्यकता होती है और उसके होने को हमें अपने भीतर आत्मसात कर लेना चाहिए .. आइए शक्ति पर्व को सार्थक बनाएं…इति शुभम भवतु ।
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