माया कौल

        बहुत चौकीदार छोड़े हैं ..मेरे लिए.. मानव ने ..

अब्भी अब्भी  तो शर्ट के तीसरे बटन ने अपनी कहानी सुनाई थी,,,उसका नशा ही नही उतरा और ये देखो कि,

रूह भी आ गई पीछे-पीछे।

सच है,,,  कहते हैं न खुशी कभी अकेले  नहीं आती और किताबें भी अकेली नहीं आतीं वो भी अपनी सहेलियों के बिना रह  ही नहीं पातीं,,अब यही देख लो।

इस किताब  शर्ट के तीसरे  बटन ने रूह को आवाज दे ही दी.. ये आठवीं किताब भी कहां अकेली रहने वाली थी।

कौन सी वाली रूह..वो प्रेत वाली नहीं.. रूह  किताब की शक्ल में आ गई ।हवाईजाज से.. फ़ास्ट ट्रेन से  पैसेंजर ट्रेन से ऑटो से  आ गई। बहुत आलसी थी तो  बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी से आ गई। पैदल नहीं आई..इतना गुरूर तो है उसमें अब लिखा भी तो मानव है न उसके ऊपर..इसीलिए  तो वो इतना  इतरा रही है।

और हम भी कुछ नहीं बोलते,,,,ऐसे देखा जाय तो गुरुर तो हमको होना चाहिए ,,,,यूं कि  जिस मानव के लिखे पर वो किताब इतरा रही है वो मानव तो मेरे  बदन में ही रहा है वो भी महीनों तक,,,,फिर गोद में रहा,,,,फिर उंगली पकड़ के चला..

और फिर  साढ़े तीन साल की उम्र में वो उसकी अमर कहानी जो मुझे रोज सुननी पड़ती थी।

यहां स्थिति ही उल्टी थी बच्चा ही मां को कहानी सुना रहा होता था,,,उसकी वो कहानी भी हजार- हजार बार  मैने सुनी कभी मजबूरी से कभी खीज से ।

इस कहानी में हमेशा एक जंगल होता था, एक राक्षस होता था, एक जादूगरनी होती थी, एक आदमी होता था ,और एक गड्ढा होता था,,,,, बस इतने ही परमानेंट पात्र होते थे न एक कम न एक ज्यादा,,,। उस कहानी में रोज एक आदमी जंगल मे गुम होता,,, रोज उसे राक्षस पकड़ता ,,,रोज जादूगरनी छुड़ाती और रोज गड्ढा पार होता।

मजाल है कोई भी पात्र घटना या कुछ भी बदला हो,जब मैं खीज कर कहती रोज रोज वही  घिसी- पिटी सुनाता है ,,,कुछ तो बदला कर।

तो जनाब  जो वो बदलता  वो  सुन कर आप माथा ही पीट लेंगे,,,मेरे डांटने गुस्सा होने पर कभी गड्ढे को पहले बता देता कभी आदमी को पहले बता देता कभी जादूगरनी को पहले बता देता पर कहानी वही की वही रहती..हा..हा..।

उन दिनों  वो कहानी कैसी भी हो मुझे कम से कम समझ तो आ जाती थी,,,

अब तो  उसकी लिखी कहानी उपन्यास इतने बुद्धिजीवी होते हैं कि कई उसकी लिखी पढ़ी किताबें बहुत मुश्किल से समझ आती हैं,,,,या जब  दूसरे  लोग उसकी तारीफ भरी  समीक्षा उसकी कहानियों किरदारों के बारे में करते है,,,तो विस्मित होकर मैं झट से किताब एक सांस में दुबारा- तिबारा पढ़ जाती हूं।

शर्ट का तीसरा बटन और रूह तो मेरी सांसों से गूंथी किताबें हैं,,,,आंसुओं की हंसती रोती नमी से भरपूर।

अब ये  सारी बातें  रूह को कौन समझाए..

वैसे हमने बहुत बहुत बेताबी से रूह का इंतजार किया था और स्वागत भी कलेजे से लगाकर किया।,

उसको पता नहीं सारी किताबें मेरे आंगन में ही गप्पा  मारकुटोवल,  सितोले, छुपम छुपाई खेलती रहती हैं और मुझे चिढ़ाती भी हैं फिर मुझे मनाती भी बहुत प्यार से हैं। ये मेरा किताबों का संयुक्त परिवार बहुत इंद्रधनुषी रंगों से भरा है,,, ये सब  दौड़ती दौड़ती  “प्रेम  के कबूतर” पकड़ती छोड़ती रहती है और हिमाकत देखो  उसी प्रेम कबूतर से पूछती भी है,,, जा देख के आ “बहुत दूर कितना दूर होता है,,”

फिर  बरसाने की राधा की तरह मेरी तरफ आंख नचा के कहती हैं “तुम्हारे बारे में” ही पूछने के लिए उसे इतनी दूर उड़ाया है फिर जब मैं गुस्सा होती हूं तो हड़बड़ी में अशुद्ध व्याकरण याद करने लगती है,,“कर्ता ने कर्म से,”,,,,मुझे उनकी अशुद्धता पर हंसी आ जाती है,,,,

चलता फिरता प्रेत है मेरा पिछला जीवन,,,वहीं कहीं से रोज कभी खिड़की तो कभी दरवाजे से कौल साहब झांक जाते हैं पता नहीं मानव इसे देख पाता है या नही,, फिर अपनी ही सोच पर मुझे हंसी आ गई,l

मेरी विद्रूपता भरी हंसी देख,,, सब की सब हत्थे से उखड़ जाती है,,और मुंह मुंह मे बड़बड़ाती है  मेरी तरफ देख मुंह बना के कहती है,,,

इस बुड्ढी “अंतिमा” को तो सब मिल कर देखेंगी,,,इन्हें समझ तो किताबें आती नहीं,,,, राजा रानी की कहानी से आगे का ज्ञान बस माशा अल्ला ही है,,,,इनका फिलॉसफी क्या ख़ाक समझेंगी…।

“शर्ट का तीसरा बटन” अलगनी पर टँगा बहुत उड़ रहा है,,,,खूब खिलखिला रहा था,,,,मैंने भी मन ही मन सोच लिया था बेटा आने दो “रूह” को ,,तुम सब को पछाड़ न दिया तो मेरा नाम बदल देना,,,बड़ी आई किताबें,,,।अमेजन पर बेस्ट सेलर क्या हुई,,,आसमान पर उड़ने लगीं,,,मेरी विद्वता का मजाक बनाती है,,,,मेरे ही आंगन में,,,,

उनकी धमाचौकड़ी देख के  मैं रसोई  में चली गई पर मन में लालच तो था उनका खेल देखने का,,,,तो रसोई की बड़ी सी खिड़की से उन सबके तमाशे देखने लगी,,बहुत चौकीदार छोड़े हैं,,मेरे लिए,, मानव ने ,,सब मेरे ही आगे पीछे भागते दौड़ते रहते है,,, सच कहूं तो मुझे भी बहुत मज़ा आता है,,,,दुनिया भूल चुकी हूं  इन सब के आने से।

 

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