राजीव सक्सेना
पत्रकारिता, रचनात्मक लेखन, कला – फ़िल्म समीक्षा, सिने – टीवी पटकथा लेखन और निर्देशन के क्षेत्र में तीन दशक से सक्रिय हैं. जयपुर में निवास
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रिमझिम के.. गीत सावन गाये…
भीगी भीगी.. रातों में..
आज रपट जाएं तो हमें ना उठाइयो..
सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ..
अबके ना सावन बरसे…
एक एफएम रेडियो आजकल हर दूसरे दिन बारिश के गीत बजा रहा है..सावन का महीना इन्हीं गीतों को सुनते गुज़र जायेगा.. ‘बरसात’ में…सच, अब ‘वो बात’ ही नहीं रही..सावन.. कैसे चुपके से.. गुज़र जाया करता है.. पता ही नहीं चलता.. यानी, अब मौसम भी बेईमान सा हो गया है..सावन के महीने में पवन के ‘सोर’ के साथ बारिश की झड़ी सी लगी होती थी…भीषण गर्मी के बाद… बरसात एक खास किस्म की राहत से सराबोर कर दिया करती थी… कुदरत के साथ लगातार खिलवाड़ ने…सबसे ज्यादा असर…वर्षा ऋतु पर डाला है… कहीं तो इस कदर भारी वर्षा एक दो दिन में ही तमाम आफत खड़ी कर देने की वजह बन जाती है कि जनजीवन तक खुद को अस्त व्यस्त महसूस करता है कहीं लोग आसमान को ताकते बारिश की बूंदों तक को तरसते रह जाते हैं.
मुंबई महानगर में… बारिश, आफत की तरह ही बरसती रही है…इस बार राजधानी दिल्ली में भी एक ही दिन में कहर ढा दिया.. महानगर की ही पृष्ठभूमि में राजकपूर साहब और नरगिस जी पर फिल्माया ‘आवारा’ का गीत … ‘प्यार हुआ, इकरार हुआ..’ याद कीजिये…भीगी सड़क किनारे फुटपाथ पर.. गरमागरम चाय बनाता हुआ आदमी… बरसाती में मस्ती के साथ स्कूल जाते हुए नन्हें बच्चे… और रोमांस की चरम अनुभूति में.. एक छतरी के नीचे.. प्रेमी युगल ..
रिमझिम के तराने लेकर आने वाली बरसात अब या तो…आती नहीं… तरसाती है… या कहीं कहीं आती है तो..सम्हलने के मौके तक नहीं देती… यानी सौ फ़ीसदी विरोधाभास… ‘सावन’.. गांवों – खेतों…आंगन में झूले की बहार लेकर आता था…झूलों पर..ज़िन्दगी के आनंद को पूरी मस्ती में जीती थी तरुणाई….
गांव की युवतियां.. सावन के लोकगीतों से समां बांधा करतीं थीं.. सावन के सोमवार की.. शिवालयों की छटा ही अनूठी हुआ करती….तीज – त्यौहार…सारे मतभेद से कहीं दूर होकर.. जनमानस को एक दूसरे से मिल जुलकर… रहने.. सुख – दुख में परस्पर मदद करने का बायस बनते रहे.
सावन से भादों के माह तक.. रक्षाबंधन..कजलियां.. जन्माष्ट्मी…गणेश चतुर्थी तक…उत्सवी माहौल…दूसरी..बातों.. विषमताओं.. विडम्बनाओं…को भुलाने में कामयाब होता रहा है.अपनी ही धुन में मगन भारतीय आमजन…शायद ही कभी… राजनीति की उठापटक…अभिनेताओं…की असमय मौत. बीमारी को लेकर इस कदर हैरान – परेशान.. हुआ होगा जितना इन बीते दिनों…इस ‘महामारी के दौर’ में हुआ है.
हर मौसम के अपने एक अलग ही मिज़ाज़ को शिद्दत से जीने के तौर तरीके.. यूं भी अपने अस्तित्व के कगार पर खड़े नज़र आ रहे हैं..बारिश में भीगने के…कागज़ की नाव तैराने के ‘बालसुलभ फितरत’ के दृश्य…ढूंढे नहीं मिलते. रिश्तेदारों… पड़ौसियों के साथ शाम की चाय – पकौड़ियों की…दावतें.. अब गांवों – कस्बों में भी दिखाई नहीं देतीं.
गर्मियों में दूरस्थ .. पहाड़ी गांवों.. हिल स्टेशंस में जाने.. की परंपरा को… वक़्त के थपेड़ों ने अपने आगोश में ले लिया है.. छोटी छोटी इकाइयों में बंट चुके…एकल परिवार भी…. ‘महीने के बजट’ या… भविष्य की बचत के मद्देनज़र.. दो बेडरूम के अपने दड़बेनुमा फ्लैट में…एयरकंडिशन्स या रूम कूलर्स को…बंद – चालू करते हुए उमस भरे दिन काट लिया करते हैं.मध्य या निम्न मध्यवर्ग.. ‘सावन हरे ना भादों सूखे’… वाली कहावत के साथ गलबहियां करने को मज़बूर है… तो श्रमिक वर्ग के लिए… मौसम कोई भी हो ‘बेमायने’ ही है.वक़्त के साथ…उसके बदलते परिवेश से कदमताल करते हुए.. ज़िन्दगी को तकरीबन ‘घसीटते हुए’ सा जीना…आम जन की मज़बूरी थी ही… उस पर…अकस्मात् आयी…नैसर्गिक या प्रायोजित आपदा…घिसटने की गति में भी…रुकावट डालने को आमादा है.
लिहाजा…हालात से लड़ने का माद्दा बचाये रखते हुए रेडियो पर… सावन के गीतों के बीच. आशा की प्रेरणा’ देते गीत भी कभी कभी सुकून देते हैं ..”रात कटेगी.. होंगे उजाले…फिर मत गिरना ओ गिरने वाले..”