डॉ. गरिमा मिश्र “तोष”
अंग्रेजी साहित्य में एमए, लेकिन रचनात्मकता और मन के भावों को हिन्दी साहित्य में बखूबी व्यक्त करती हैं। शास्त्रीय संगीत गायन विधा में विशारद, कई किताबों का प्रकाशन एवं साहित्य के क्षेत्र में कई सम्मान प्राप्त।लगभग अठारह वर्षों से सतत रचनात्मक ,आध्यात्मिक आत्मिक एवं संबंधात्मक गतिविधियों एवं उन्नयन हेतु सेवारत।
मानव के आत्मिक और सामाजिक उन्नयन में “व्यवहार “की महती भूमिका
मनकही में इस दफे मानवीय व्यवहार पर लेख लिखते हुए मैंने स्वयं को आसपास के अपने संबंधों और अब तक के जीवन के अनुभव पर जितना मानव मन हृदय और भावों से संचालित व्यवहार को समझा है, वही कुछ आपसे साझा कर रही हूं ।
किसी भी व्यक्ति के विभिन्न दिशाओं में भौतिक क्रियाकलाप और प्रेक्षणीय भावनात्मक दशाओं के समूह को व्यवहार कहते हैं, अथवा यह मानव जाति के विविध व्यवहारों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त शब्दावली भी है जो कि ठीक अलग-अलग अवस्था में अलग-अलग परिस्थितियों के साथ बदलता रहता है ,परंतु कुछ मुख्य विशेषताओं में प्रतिक्रियाओं में परिवर्तन नहीं आता और अमूमन अपने चारों ओर होने वाली घटनाओं से प्रभावित होकर ही कुछ अनुकूलन कर समग्र भाव से बढ़ता या घटता है।
देखा जाए तो भावों के आरोह अवरोह से ही मानव व्यवहार हृदय निनादित होता है जो कि नितांत स्वाभाविक एवं सहज प्रक्रिया है ,जो कि जीवन भर आंतरिक और बाह्य उत्कंठा उत्तेजना द्वारा संचालित होता है, उसी व्यवहार में यदि सामंजस्य बैठा लिया जाए तो बुद्ध हो जाएं सभी आत्म तत्व क्योंकि बुद्ध होना यानी बुद्धि को जागृत कर ज्ञान में होकर संतोष में होकर स्थिर जीवन शैली को व्यवहार में उतार देना स्थितप्रज्ञ हो जाना अर्थात जन्म से किशोरावस्था वयस्कता और वृद्ध होने की यात्रा में जी गई ,भोगी गई सामाजिक संपर्क और रचनात्मक अभिव्यक्ति ही मानव व्यवहार के रूप हैं ,जिस में व्यक्तिगत मानस में विचारों भावनाओं से उपजी अंतर्दृष्टि ही दृष्टिकोण हो कर स्थापित संस्कार और मूल्यों को पोषित कर मनोवैज्ञानिक लक्षणों का आकार लेकर अंतर्मुखी बहिर्मुखी व्यक्तित्व द्वारा की गई गतिविधियों से एक सामाजिक संभावना को जन्म देते हैं, जिसे हम सामान्य भाषा में व्यवहार की श्रेणी में रखकर बहुधा उस व्यवहार के द्वारा व्यक्ति के अस्तित्व को ,उसके आचरण का और चरित्र का मूल्यांकन करने लगते हैं ।
हम मानव जाति का व्यवहार अन्य जीव धारियों की तरह एक स्पेक्ट्रम पर पड़ता है जिसमें कुछ व्यवहार सामान्य होते हैं जबकि अन्य असामान्य और कुछ स्वीकार्य होते हैं तो कुछ अस्वीकार्य भी ,जहां सामाजिक मानदंडों की बहुत बड़ी भूमिका आती है ,वह कहते हैं ना कि जिंदगी का सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग क्योंकि इन्हीं मानदंडों से घिरकर हम नियंत्रण की डोर भी इसी तरह के क्षुद्र व्यवहार के हाथों में दे दिया करते हैं और बाद में रोते हैं ऐसा हमने क्यों किया यह सोच कर दुखी होते हैं कि काश हमने अपने मन ह्रदय के भावों को व्यवहार गत आचरण में डालकर जीवन के निर्णय को लिया होता।
मैं यदि अपने ही अनुभव पर जी गई जिंदगी को पढूं तो आधे से ज्यादा जीवन मैंने यही सोच कर और उस सोच को जीते हुए बिता दिया कि इस व्यवहार को अपनाने से मुझ पर या समाज के मूल्यों पर या सामाजिक प्राणियों पर क्या असर पड़ेगा और तो और मेरे व्यवहार को सदैव मैंने इस हेतु साधा कि दूसरों पर कोई विपरीत असर ना हो ,मुझसे कोई दुखी ना हो जाए या किसी की अपेक्षाओं को मैं अधूरा न रहने दूं, पर इन सारे खरे उतरने की होड़ में स्वयं को दोयम दर्जे में रखकर भूल गई कि मैं भी तो दुखी हो गई हूं या संवेदना कहीं चली गई है या उपेक्षा के दंश से मेरी भी मज्जा जली है फिर भी सब बातों के अलावा मैं उस सारे अनुभवों की संघातक गठरी को कांधे से उतारकर मुक्त तभी हो सकती हूं जब भेद व्यवहार के बदले सम व्यवहार की प्रक्रिया को अपना लूं, पर भी इसमें सोचना होगा क्योंकि प्रेम पूर्ण व्यवहार के बदले आप जो प्रतिदान दे सकते हैं वह प्रेम होकर आपकी उर्जा को बढ़ा ही देगा और घृणा दुर्व्यवहार के बदले यदि आप वही देंगे तो वह आपकी शक्ति को आप ही की दृष्टि में कम करके आपको तुच्छ कर देगा ,कुल जमा व्यवहार के प्रति दान की प्रक्रिया एक तरफा ही रही आती है ।
संवेदनशील आत्मा धारियों के लिए अधिक समस्या हो जाती है कि वे करें तो क्या करें क्योंकि व्यवहार परिस्थितियों के द्वारा संचालित जो हो जाता है उदाहरण के लिए फला व्यक्ति ने ऐसा किया तो हम वैसा ही करेंगे या उसके घर में बड़ी गाड़ी है हम भी ले ले क्या या उसका घर मेरे घर से बड़ा है यहां बात यही हो जाती है कि उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद कैसे यदि हम हर बात पर आसपास के लोगों से तुलना करते बैठे रहेंगे तो कैसे आत्मा स्थित होंगे अब बात यहां यह भी आती है कि तुलना करनी है तो घनआत्मक करो , क्षुद्र बातों की तुलना क्यों करना भाई बुद्धिमानी सदाशयता, व्यवहार आचरण चरित्र उन्नयन संस्कार उसका भी तो कुछ मार्ग हैं तुलना के लिए ,पर नहीं हम उसको छिद्रानवेशन करेंगे तुलना नहीं ,एक सतर्क व्यव्हार को सराहते हुए हम उस बात को स्वयं में ढाल लें,जैसे यदि किसी में दिखे कि वह बहुत मीठा बोलता है तो स्वयं भी मीठा बोलने लगे यदि किसी ने मीठा बोल लिया तो कोई अवश्य मतलब होगा उसका ,यह क्यों सोचना अरे यह दिखावा है या कुछ तो गलत है , अरे भई संदेह जो कि मानव व्यवहार का सबसे गहरा गड्ढा है जिसमें गिरकर कोई भी विश्वास की सीढ़ी पर पहला पग ना रख सकेगा क्योंकि व्यवहार में सन्देह का स्थान नहीं होना चाहिए वह अनेकों संशय के साथ आपके जीवन में असुरक्षा का भाव अनिश्चितता का भाव और स्वयं पर अविश्वास का भाव ले आता है ।
तो कुल जमा मानव व्यवहार आपको मानव होने को प्रेरित करने का सबसे कारगर मार्ग है बशर्ते हम उलझनों को कम करने का प्रयत्न करते हुए स्वयं को सतर्क रखें।
व्यवहार के सरलतम स्वरूप में एक ही बात को प्रमुख मानती हूं मैं ,वह यह कि हम कितना प्रेम में रह सकते हैं कितना प्रेम पर विश्वास कर सकते हैं, प्रेम आवश्यक नहीं है कि दो देह धारियों के बीच ही पनपे जिसे हम स्त्री या पुरुष की दृष्टि से ना देखें प्रेम तो नितांत सरल तरल व्यवहार है जो प्रकृति के हर श्वास ले रहे या आश्वासित तंतु के मध्य रचा बसा है जैसे विश्वास था मुझे किसी ने बहुत ही सरल तरीके से बतला दिया था कि व्यवहार के बिंदु आत्मा से ही आरंभ होकर आत्मा में विलीन होते हैं हां यह हमारे और आपके सोचने का तरीका या दृष्टिकोण ही निर्भर करता है कि कितना देह से परे संबंध से परे का व्यवहार हमने बांध रखा है ।मुझे तो एक बात और समझ आती है व्यवहार के पालन में जो कि अत्यंत गूढ़ होते हुए भी सरल जान पड़ती है वह है अपेक्षाओं से किनारा, हमारे संस्कार जो अपेक्षाओं का संसार बनाते हैं पर बहुधा कष्ट का कारण होकर स्वयं के और दूसरों के व्यवहार के बदलने का रास्ता बना बना देते हैं अपेक्षा और उपेक्षा की गहरी ढीठ मार सदैव संबंधों के व्यवहारों के सुंदर आचरण को बोझिल या असुंदर कर जाती है और कहीं सच में सरलीकरण ना होकर विकटता गंभीरता का लबादा व्यवहार पर लग ही जाता है ,मैंने तो अनुभव किया है कि यदि संबंधों में सामाजिक आत्मिक व्यवहारों में अपेक्षाओं का नीला रंग मिलता है तो सरलता का पीलापन स्वता कालिमा में परिवर्तित हो ही जाता है और सड़ चुके मन का दंश व्यवहार के सड़े हुए होने का बोध और प्रगाढ़ कर देता है ।
किसी अपने ने मुझे जब व्यवहार के सड़े हुए होने का बोध करवाया तो ऐसे ही किसी ने अपने आत्मिक व्यवहार से मुझे चमत्कृत भी किया कभी और ऐसे ही तो हम इस संसार में जिसको हम चलाए मान गतिशील पाते हैं उसमें रहकर सत व्यवहार की सच्ची परिभाषा को न केवल समझना बल्कि अपनाना भी सिखा दिया जाए तो प्रसन्नता के लिए सेमिनार या अधिवेशन नहीं किए जाएंगे कभी ,कभी किसी को काउंसलिंग या परामर्श की आवश्यकता नही पड़ेगीऔर व्यवहार को जीवंतता के साथ अपनाया जा सकेगा और आभासी दुनिया के भास में हम स्वयं को ढाल कर मानव होने की प्रथम सीढ़ी तो चढ़ ही पाएंगे मानव होने की प्रथम सीढ़ी व्यवहार ही तो तय करता है…
मनकही में आज इतना ही …इति शुभम।
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