राजीव सक्सेना
पत्रकारिता, रचनात्मक लेखन, कला – फ़िल्म समीक्षा, सिने – टीवी पटकथा लेखन और निर्देशन के क्षेत्र में तीन दशक से सक्रिय हैं.
25 वर्ष की उम्र से, राष्ट्रीय सहारा, संडे मेल, सन्डे आब्जर्वर, सरिता, धर्मयुग, साप्तहिक हिंदुस्तान, नवनीत, कादम्बिनी, फिल्मफेयर, स्क्रीन, दैनिक जागरण, दैनिक नई दुनिया, दैनिक भास्कर, नवभारत टाइम्स, दैनिक नवभारत आदि 25 से अधिक पत्रिकाओँ और अखबारों में 20 वर्ष सतत लेखन,4 हजार से ज्यादा आलेख, इंटरव्यू, रिपोर्ताज फीचर आदि का प्रकाशित हो चुके हैं।
संस्मरण पर आधारित प्रथम पुस्तक ‘ नौ दिन चले अढ़ाई कोस’, विगत फरवरी माह में स्क्रिप्टर पब्लिकेशन, लखनऊ ने प्रकाशित की है.
‘फ़िल्मी बतियां’ , ‘हमारे आसपास’ जैसे आधा दर्ज़न टीवी शोज में निर्देशन और लेखन, दूरदर्शन वृत्तचित्र ‘मालवा का काश्मीर ‘, ‘देवास :कल, कला और अध्यात्म का संगम ‘ और ‘मालवा की विरासत ‘ जैसी लघु फिल्मो,ट्रेवल शो और धारावाहिकों का लेखन निर्देशन इन्होंने किया है।
रीजनल, मुख्य धारा के सिनेमा और टीवी धारावाहिकों के लिए लेखन और निर्देशन के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय हैं।
एपिक टीवी पर हेरिटेज इंडिया,देसी फोक, हमारी संस्कृति, आवाज़ ओ अंदाज़, सिटी ऑफ इंडिया,स्वर्णिम गुजरात, सरोकार राजस्थान जैसे जनप्रिय टीवी शोज़ के लेखक एवं निर्देशक हैं। इसी चैनल में “सरोकार” शो का वतर्मान में प्रसारण हो रहा है।
फोन -9602297804, 6265218974
निवास- जयपुर
मुद्दों की दुकान फैली ..
शुरुआती साल में ही.. ‘चेहरों की किताब’ के मालिक के आँगन में आंसुओं के साथ.. हुआ, भारतीय मानसिकता को ढपोरशंख बनाने का सौदा.. धीरे -धीरे अच्छा खासा आकार ले चुका है.. सामाजिक माध्यम को उसके आगे ‘अ’ जोड़कर उसके ज़रिये तथाकथित बौद्धिक वर्ग से लेकर आम जन तक को उलझाए रखने का षड्यंत्र..’ कर लो दुनिया मुट्ठी में ‘ की तर्ज़ पर हर हाथ को मोबाईल फोन का आदी बना कर दिमाग़ के कंप्यूटर में वाइरस छोड़ने के सिलसिले का ही अगला कदम है..’ लो झुनझुना.. फुरसत हो चाहे व्यस्त हो.. बजाते रहो ‘और, हम सब.. झुनझुनेनुमा सामाजिक माध्यम से,खुद अपने ही दिमाग़ का मलीदा बनाने में शिद्दत से जुट गए.
इधर.. गए एक दशक में..’वो सब’ .. अपनी इमारत मजबूत करते रहे .. हमारे पास, जो एक अदद दिमाग़ ही था उसी को खोखला करते रहे.. करते रहे..अस्सी के दशक के शुरुआत में टेलीविजन का छोटा पर्दा प्रकट हुआ..कुछ बिगाड़ा नहीं.. वाकई स्लोगन के मुताबिक सूचनायें दी.. ज्ञान बढ़ाया.. मनोरंजन दिया..ये अलग बात कि एक दशक भी न बीता कि..तमाम सारी चैनल्स की धमाचौकड़ी ने ‘क्वालिटी’ और ‘क्वांटिटी’ में झगड़ा करवा दिया.
अख़बार अपने काम में कुछ मेच्योर होने ही लगे थे.. कि समाचार चैनलों की अनचाही बारिश.. ओलों के साथ आन पड़ी..व्यवसाय का पर्याय दुकान..जिसे चलाने के लिए पहला शिकार दर्शक.. श्रोता या ग्राहक..अच्छा खासा घर गृहस्थी.. रिश्ते नाते.. दोस्ती में खुद को डुबाये रखा आम और खास..चैनलों के बटन घुमा घुमा.. रिमोट दबा दबा कर फिज़ूल ही सिर फुटव्वल में जुट गया..
तीन में ना तेरह में..लेना एक न देना दो..को नृप होई हमें का हानि.. सारी कहावतों को ताक में रखकर.. सारे के सारे आम दर्शक बेमतलब.. देश दुनिया के हर फटे हिस्से में अपनी एक टांग अड़ाने को जबरन आमादा होने लगे.
टेलीविजन सैट और चलते फिरते फोन को अलग करके उस प्यारी सी दुनिया को याद कीजिये.. एक अख़बार किसी के घर आता हो तो सारा आसपास का संसार पढ़ लिया करता था.. क्या सुकून था.. किसी नेता के.. किसी बाबा के किसी अभिनेता के बिस्तर तक पहुंचने की किसी को कोई खास दिलचस्पी.. नहीं रही होगी.
‘कवि’ और ‘रवि’ की तुकबंदी के ज़माने बरसों पीछे छूट गए.. ‘जहां ना पहुंचें सीढियां, वहां पहुंचे मीडिया’ .. ‘क्या करेगा मिसाइल.. क्या न करे मोबाईल’ .. सरीखे नये काफिये मिलाये जाने लगे.
और.. अब ये.. ‘सोशल’ बनाम ‘अनसोशल मीडिया’.. अपनी ‘दाल – रोटी की दुनिया’ से एकदम अलग ‘ड्रीमवर्ल्ड’ में.. खींचता हुआ ‘दिमाग़ का दही’.. नहीं.. ‘दही बड़ा’ और ‘भर्ता’ बनाने में तुला हुआ है
कश्मीर पर पिक्चर कोई बनाये.. फायदा कोई उठाये… पैसा कोई कमाए.. किसी पंडित के घर कोई सदस्य मारा जाये..उसके आँगन में बैठने जाने का दम – गुर्दा चाहे शरीर के किसी हिस्से में न हो पर हाथ में झुनझुना जो पकड़ा है..भला बजाये बिना कैसे रहें..ज्ञानवापी मस्जिद का ज्ञान – ध्यान इतने बरसों में नहीं आया..ताजमहल के सामने कुनबे के फोटो खिंचा खिंचाकर उसकी चमक को कम करते हुए कभी नहीं ख्याल आया कि उसके भीतर कितने कमरे होंगे..खोलकर देखा जाये..मुमताज़ की कब्र के बाजू में..कोई मूर्ति तो नहीं..
जयपुर की राजकुमारी जी के भी ज्ञान चक्षु इसी माध्यम ने ही यकायक खोल डाले..और तो और..घर बैठे बैठे क़लम चलाने वाले कलमकारों ने भी नये माध्यम को .. अपनी दबी भड़ास..दनादन निकालने का माध्यम बना लिया.. अपनी लेखनी के जलवों तक तो ठीक..अपने ही बीच के जिस नावागत रचनाकार को कल तक हाथों हाथ उठाते रहे.. अचानक लगे आरोप पर.. उसी को आड़े हाथ लेने में भी देर नहीं लगाई..लाल दुपट्टा रातों रात बदनाम हो गए..
हो सकता है सच वाकई कड़वा ही हो..पर,अपने घर का कोई मेंबर यहां होता तो.. बयान ये होते कि आरोप साबित कहाँ हुआ.. आरोप तो कोई भी किसी पर कभी भी लगा सकता है… वगैरह.
एक मुद्दा ठंडा हो न हो, इससे पहले कोई नई शिगूफ़ेबाजी शुरू कर नई ज़िम्मेदारी थिंक टैंक को मिल जाया करती है..
आकाओं की ‘ अग्निवीर ‘ की घोषणा कोसोशल मीडिया विंग द्वारा, सोचे समझे योजनाबद्ध तरीके से.. सफाई के साथ
‘ अग्निपथ ‘ में तब्दील कर दिया जाता है..ताकि फिर एक बार आम जन का ध्यान कहीं और उलझ कर चकरघिन्नी बन घूमता रहे..
लब्बोलुबाव ये कि मूर्खों की गंगा में डुबकी लगा लगा वो पाप धो रहे हैं..हमारा ध्यान बांटकर ख़ज़ाने बना रहे हैं..अगली बार फिर.. वही सरकार..और, हम.. सुकून.. चैन खो खोकर.. बेमतलब मुद्दों की दुकान से नये नये झुनझुने मोल ले रहे हैं.