डॉ. गरिमा मिश्र तोष

अंग्रेजी साहित्य में एमए, लेकिन रचनात्मकता और मन के भावों को हिन्दी साहित्य में बखूबी व्यक्त करती हैं। शास्त्रीय संगीत गायन विधा में विशारद, कई किताबों का प्रकाशन एवं साहित्य के क्षेत्र में कई सम्मान प्राप्त।लगभग अठारह वर्षों से सतत रचनात्मक ,आध्यात्मिक आत्मिक एवं संबंधात्मक गतिविधियों एवं उन्नयन हेतु सेवारत।

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एक शब्द है” साथ “जिसे हम कितने ही प्रकार से कहा करते हैं जैसे मैं साथ हूं, हम साथ हैं, साथ हो न,साथ दोगे ना ,साथ रहो या साथ नही रहो पर साथ के सार्थक स्वरूप को क्या पूरी तरह हम निभा पाते हैं, शायद नहीं, ना हि निभा पाते हैं ना ही जी पाते हैं,मेरी दृष्टि में साथ का अर्थ है

स-सहज

आ -आनंदी

थ -थपकी

जोकि हृदय ही नही आत्मा को भी अल्हादित कर दे जैसे दूर से भाग कर  आते हुए बच्चे को पिता या माता की गहरी पुष्ट आधारवान बाहों का आसरा प्राप्त हो या दिन भर से प्यासे भूखे चिड़िया के बच्चे को मां की चोंच से प्राप्त हुआ भोजन या बड़े से पुष्पवन में भंवरों का गुंजन तितलियों की आमद या नीले आसमान में दूर प्रवासी पक्षियों की कतार या गहरी रात्रि में निस्पृह चमकते दूर दूर तक फैले तारक मंडल सभी परस्पर साथ को दर्शाते हैं।

एक सहज आनंदी थपकी से भरे अद्भुत सच्चे भाव को धारते हुए हम साथ को अनुभव भी करते हैं फिर वो चाहे भीषण दुख की परिस्थिति में कहा हो किसी ने या सुख की मनःस्थिति में साथ को मात्र कहकर नहीं जी कर ही तो हम अनुभव कर सकते हैं ।

साथ होना और रहे आना एक नितांत सहज सरल प्रक्रिया

मैं तो अपने जीवन की अब तक की यात्रा में इस बात को पुनः पुनः दोहराती रही हूं जैसे की ध्यान अवस्था में मन धरा पर अंकुरित बीज को विचार स्वरूप पोषण देकर संबंधों को अनुभव कर सकने के लिए सर्वप्रथम बाध्यता स्वयं को साथ का सार्थक तत्व जी लेने देने का अनुबंध देना होता है ।

मैं एक बहुत साधारण जीवन शैली को जीने वाली सादा मानस रखने वाली भावनाओं को ही खाती पीती ओढ़ती बिछाती आत्मा हूं ,जी मैं सदेह आत्मा ही हूं क्या करूं भावुक हूं ऊपर से स्त्री भी हूं तो सोने में सुहागा ही है ,मेरा होना सार्थक ही तभी लगता है मुझे की मानो ईश्वर ने इस जीवन को दिया ही है भावों को जीने के लिए पोषण करने और संचारित करने के लिए , मैं गाहेबगाहे सभी उचित अवसरों पर भावों के एक प्रमुख शब्द “साथ”को हर आत्मसंधानी केंद्रित आत्मा को संप्रेषित करती रहती हूं और अधिकतर सफलता मिलती है में उन मनों  को हृदयों को संतुष्ट और सम्पूर्ण कर पाति हूं जिन्हें साथ की आवश्यकता होती है।वैसे भी साथ हूं कहना ही नहीं होता है ,होना भी पड़ता है,बस तभी आपकी आत्मिक ऊर्जा का साथ उस आत्मा को प्राप्त हुआ भी या नही या आपको उस ऊर्जा के प्रत्यारोपण का अनुभव हुआ या नहीं जान पङता है।साथ होना और रहे आना एक नितांत सहज सरल प्रक्रिया के अंतर्गत आता है जिसमें बदले में वह मिले ही इसकी आवश्यकता नहीं होती है और बाध्यता तो कतई नहीं है,हां एक महत्वपूर्ण बात होती है साथ का होना ,सहज आनंदी थपकी का आभास ,बहुत शांतिदायक अनुभव होता है किसी सानिध्य का अपने भावों को छूना ,आवश्यक नही है की आप जतायें ही , बताएं ही बस होने का आभास ही बहुत होता है होना ही तो पर्याप्त होता है ,ना होता तो क्यों ही चांद को चांदनी मिलती,कमल को भौंरे का गुंजन, सूर्य को रश्मि या हिम स्निग्धतता को शीतलता या गहन अंधकार को प्रत्युषा या विदीर्ण हृदय को प्रेम की पुलक या एकाकी मन को भक्ति की छुअन साथ है तभी ना साथ का अर्थ है ।

आज इस साथ शब्द का सार्थक भाव जो में वर्षों युगों जिया है आप सब से सांझा करते मैं साथ ही तो निभा रही हूं आप सब भी जो पढ़ रहे हैं कहीं न कहीं साथ के इस संस्कारी आश्रय को बांट ही तो रहे होंगे कोई भाव से ,कोई मन से कोई हृदय से ,कोई विचार कोई स्मृति और कोई शब्दों से तो कोई समय से देह से साथ देता है…साथ तो बस दे देने, पा लेने, खो देने बांट लेने की परिधि मेंबंधा रहता है, मैं ही जी लेने को वरीयता देती हूं ।

मुझे तो साथ को जीना ऐसा लगता है जैसे सागर किनारे की गीली रेत जो एक एक लहर के साथ मानो समय सी अपने पैरों के नीचे से खिसकती जाति है और हर बार भीगे हुए पैरों को मन का एक हिस्सा बनाती आने वाले क्षणों को सुखद सरल और तरल कर जाती  है। साथ का होना भावों की तरलता के साथ साथ मानस की परिपक्वता को भी दर्शाता है,जैसे मुझे याद है जब बालपन में गर्मियों में हम खुली छत पर आकाश तले ढेरों तारों में किसी प्रिय छवि को बुन निहारते गहन निंद्रा में होते तो एकाकी होने का भाव घुल कर उन चमकते तारकों  की सहज आनंदी थपकी ही तो होता है ,जिसको हम कहते हैं आज तो तारों के साथ सारी रात बहुत गहरी नींद आई या कहीं घर से दूर निर्जन वन में एक जंगली नदी के पथरीले कंकड़ भरे तट पर आश्रय ले कर जब कोई अच्छी पुस्तक हाथ धरे हृदय में किसी प्रिय की स्मृतियों में आकंठ डूबे निश्छल बहती जलधार में घुटनों तक डूबे पैरों पर ब्रह्माण्ड का साार तत्व जलस्वरूप में धर कर अपने सब स्वप्नोको पीड़ा को प्रसन्नता को एकांत को साथ को अनुभव कर रहे होते हैं तो वो भी एक तरल जागृत भाव रूप में साथ हो तो होता है ,…है,ना।

साथ वह भी तो है जब हड्डी कंपकपाने वाली ठंड हो और आप उस ठंड की शीतलता में दूर कहीं अग्नि की धूम्ररेखा को देख सकें तो हिम खंडों की धवल श्वेत चादर को पश्मीना शॉल समझ कर किसी सुदृढ़ आलिंगन की मधुर स्मृति से जो पुष्ट भाव भाल पर स्वेद बिंदु बन चमकेगा वह प्रेम की शाश्वत पुलक भरा साथ ही तो होगा फिर उस मस्तक को कभी स्पर्श किया हुआ हो या नहीं या फिर उस आलिंगन को जिया हो या नहीं पर अग्नि के साथ का भाव उसका ताप पर्याप्त होगा शीत को सहनिय करने के लिए,वैसे ही एक साथ धरा पर पड़े पुष्पों,हरी दुर्वा और धूल पर पड़े पैरों और उन पैरों के पद स्पर्श के अखंड अमिट स्नेहचिन्ह का भी तो होता है।

श्रृष्टि के आरंभ से धरा को एक चक्र पर धुरी पर घूमते हुए अपने अपने ध्रुवों पर टिके सारा सौर मंडल देख ही तो रहा है ,ठीक वैसे ही जैसे प्राप्य,अप्राप्य से परे प्रेम को जिया जा रहा हो और साथ दिया जा रहा हो,धरा ठीक वैसे ही तो प्रेमल साथ दे रही है हर मानस का हर जीव के उन्नत बीज स्वप्न को पूर्णता का ,ये साथ ही तो है जो स्वरूपों में पूर्ण होने का बोध करवाता है ।जिस तरह पांच तत्वों के माध्यम से मैने साथ के भाव को जाना है जिया है सच कहती हूं पुनः पुनः जन्मने को आतुर हूं फिर चाहे एकाकी रहूं या भीड़ में मैैं साथ को न तरसूंगी क्योंकि मैंने साथ को जिया है हर तरह से उंगलियों के पोरों पर थमती बरसात की बूंदें हों चाहे या चशमीली चमकती आंखों में नेह की बौछार या बादलों में से छनती सुनहरी किरणों या माथे पर चमकती सिंदूरी आभा या हृदय में बस चुके इष्ट का स्वरूप या संध्याकाल तुलसी में प्रज्वलित आरात्रक का साथ ,जन्मजन्मांतर को प्रतीक्षित अनुमोदन का साथ मात्र एक सहज आनंदी थपकी ही तो है।

मैं बिना किसी लाग लपेट के यदि कहूं तो आत्मा को ऊर्ध्व मुखी चेतना की तरह जैसे परमात्मा के आभास की आकांक्षा होती है और वह भौतिक जगत में अपने सभी दायित्वों को पूर्ण कर जिस निश्चिंतता को अनुभव करती है जिस भाव से निर्लिप्त एकाकी चलती है यह उसी साथ की विशिष्टता ही तो होती है जिसको हम होने का आभास कहा करते हैं,कोई कहता है की परमात्मा साथ हैं कोई कहता है वह साथ है, और कोई कहता है की हम साथ हैं,बस हम साथ हैं ,यही बस यही साथ है फिर उसमें क्या निकटता क्या दूरी,क्या पूर्णता,क्या अपूर्णता ….सब एक ही में समाहित हैं यही है साथ की ;कोई साथ है ..की हम साथ हैं।। तोष॥

स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित।

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