डॉ. गरिमा मिश्र तोष

           मेरे आदर्श

मैं नितांत सहज सरल शब्दों में यदि कहूं कि आदर्श और उनका प्रतिमान क्या हो तो ,यही कहना चाहूंगी कि आदर्श वह शब्द भाव हैं जिसमें देखने के साथ-साथ समझने स्वयं में उतारने का सामर्थ्य हो व्यक्ति जिस तत्व को चरित्र को या विचार को देखें गहनता से आत्मसात करें और तत्पश्चात पालन करें वही आदर्श है, अर्थात दर्शनीय ,गृहणीय, धारणीय,और सकर्मणीय भाव विचार संस्कार मानस चरित्र ही है सच्चे आदर्श का प्रतिमान ।

अब आप सोचेंगे ऐसे तो कठिन ही होगा विच्छेदन या विश्लेषण करना तो मैं कहूंगी नहीं आदर्शों को स्थापित करना कठिन होता है ,उन्हें पहचान लेना ढूंढ लेना या मान लेना नहीं ।आदर्श मानने की यात्रा तो मानव सभ्यता के आरंभ से ही हो गई होगी,घोर आध्यात्मिक स्वरूप में भी यदि हम देखें तो परमात्मा ने किसी उद्देश्य को आदर्श मानकर ही ना प्रकृति की अवधारणा रची या स्थापना की ।

परिकल्पना ही मान लें तो भी किसी आदर्श के स्थापत्य को ही तो मानव सभ्यता पनपी नहीं तो राम कृष्ण मीरा राधा द्रौपदी क्या ही आदर्श स्थापित करते,सभी ज्ञानो्मुखी साधक जीवन व्यर्थ क्यों न चले गए होते , उन प्रतिमानों को पुष्पित और पल्लवित किया अनेकों ऋषि-मुनियों गुरुजनों ने अपने शब्दांजली में समाहित करके।

      मेरे आदर्श मेरी मां- पिताजी

आज जो मैं यह भाव विचार रच भी पा रही हूं तो वह इसीलिए ना कि गुरु कृपा ही मेरा आधार है और मेरे आदर्श भी उन्हीं के विचार आचरण रहे ,अतः मैं मिथ्यावाचन नहीं सत्याचरण को अपने आदर्श में धरती और पालन करती यही जान पाती हूं कि आदर्शों की स्थापना को युगों ने तपस्यारत रह-रहकर युग नायकों की प्रतीक्षा की है और उन्हीं के विचारों आचरण और कर्तव्यों ने शुद्ध कर्मा आदर्शों की आधारशिला रखी है ।आदर्श जो दिशाहीन मनुष्य को दिशा प्रदान करने के साथ-साथ जीवन की नीतियों एवं उनके ज्ञान को परिष्कृत करने में भी सहायक होते हैं उनकी आत्मा को संपूर्णता प्रदान करते हैं और उसी संपूर्णता की प्राप्ति से एक आदर्श मानव का समाज का निर्माण होता है ।

आदर्श ,जीवन में व्यक्ति के चरित्र निर्माण में भी बहुत सहयोगी होते हैं क्योंकि हम जिन्हें देखते हैं समझते हैं जानते हैं पढ़ते हैं उन्हीं का अनुसरण भी करते हैं यदि प्रेमचंद शरद चंद, महादेवी वर्मा साहित्य में एक अलग सम्मान या मान की आधारशिला नहीं रखते तो साहित्यकारों में साहित्य आकाश की अवधारणा कुछ और होती उसी तरह आदर्श दैनंदिन जीवन में भी आवश्यक होते हैं हम यदि अपने माता-पिता को नियमित कार्य करते हुए दैनंदिन निरंतरता में रहते हुए सांध्य उपासना पूजा पाठ करते हुए नहीं देखते तो हम उन्हें अपने जीवन में उतारते नहीं अपनी संतान को या अपनी आने वाली पीढ़ी को वह नहीं समझा पाते ।

आदर्शों के लिए मेरा मानना यही है कि स्व्तःधार्य आचरण आदर्श को पुष्पित और पल्लवित करते हैं और उसी से सुसमृद्ध सुदृढ़ समाज का निर्माण होता है । मेरे आदर्श सर्वप्रथम किसी भी स्वतंत्र चेतना या आत्मा धारी के आधार पर मेरी मां- पिताजी ही रहे हैं जिन्होंने मेरा परिचय सूक्ष्म जगत से लेकर बाह्य जगत के आधारों से ,मानदंडों से यूं करवा दिया मनो मैं हर युग उन्हीं से जन्मी रही हूं। मेरे घनीभूत दीर्घ जीवन यात्रा में आदर्शों की एक बड़ी सी अनुक्रमणिका खड़ी करने में वे दोनों ही सहायक रहे हैं मूलाधार रहे हैं मार्गदर्शक रहे हैं और मैं सत्य कहूं तो मेरे प्रथम आदर्श वे ही रहेंगे।

गुरुजन की कृपा से मेरा परमेश्वर मेरा रब मेरा भगवान हाड़ मांस भावों अच्छाइयों बुराइयों अथाह प्रेम क्षणिक क्रोध से बना हुआ खांचा मेरे माता-पिता ही हैं और अतिशयोक्ति नहीं रहेगी कि उन्होंने मुझे क्षण क्षण पग पग परिष्कृत किया मेरी समस्त शठताओं ,अवज्ञाओं के बाद भी अंगीकृत किया।वैसे ही सहारा दिया जैसे बनती मिट्टी के घड़े को कुम्हार  बाहर से ऊपरी तौर पर थपकी देता है और भीतर से अपने पुष्ठ हाथों से संभाल कर देखरेख करता रहता है, मैं परम पिता परमेश्वर और गुरुजन की आभारी हूं कि उन्होंने मानव जीवन दिया और अपने माता-पिता की ऋणि हूं कि उन्होंने संवेदनशील दृष्टि दी, पुष्ठ संधानिक दृष्टिकोण दिया, चैतन्य मानस दिया और संस्कारी प्रेमल ह्रदय दिया, व्यावहारिक बुद्धि, संसार के सभी आदर्शों को पढ़कर समझ कर अनुपालन करने की युक्ति दी ।

मेरे माता-पिता ही मेरा आदर्श है जिन्होंने मुझे समग्रता से आदर्शों से परिचित करवाया फिर वह सूर्य देव की तेज शक्ति हो, पवन देव की विश्रांति हो ,जल देव की तृप्ति हो या अग्नि की प्रचंडता, श्री राम की मर्यादा हो या श्री कृष्ण का प्रेम चपलता या मीराबाई की भक्ति या श्रीयुत कर्ण की विशिष्टता नियम बद्धता या मां दुर्गा का सामर्थ्य ,रुक्मणी के प्रेम का उत्कर्ष या वेदों उपनिषदों का संधान या गायत्री का अनुष्ठान सभी आदर्शों में तत्वों में छिपे हर रहस्य को समझना जानना मानना अनुभव करना, रह जाता यदि यह आदर्श मेरे जीवन दर्शन में नहीं होते दूसरे में इन महान युगनायकों धर्म प्रवर्तकों के  मूल को जान ही ना पाती जो मेरे ज्ञान चक्षु इन सिद्ध आत्मचैतन्य व्यक्तित्वों से न जुड़े होते ।

मैं तो अब तक के अपने इस जीवन काल में  माता पिता के कारण ही आदर्शों को जान और  समझ पाई हूं और उन्हीं के सत्कर्मों के आधार पर मैंने अपने आदर्शों के प्रतिमान स्थापित किए हैं, फिर संबंधों की बात हो, या स्वप्नों की बात हो या अपनों की बात हो या समाज को बदलने की या समाज की सेवा की यह आदर्शों को पुनः जीवित करने की बात हो या साहित्य के संवर्द्धन की बात हो ।कार्य वह होना वह चाहिए  जो हृदय मान ले तो आप का मन ही नहीं आत्मा भी आत्मसात करें । सृष्टि के आरंभ से ही बहुत सारे ऐसे मानदंड और मापदंड बन गए हैं व्यक्तित्व और व्यक्तित्व को जांचने मानने के लिये कि मानस विचारों की संकुचित सीमाओं में सोचकर बंध कर रह जाता है ।

मेरा मानना है कि व्यक्तित्व को संस्कारों की पुष्ट आधारशिला देते हुए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए उसके विचारों की उड़ान के साथ, संभवत वह सत्याचरण की महत्ता को संस्कार की महत्ता को जीने लग जाए बजाय मानने के क्योंकि हम मानने में ज्यादा ध्यान देते हैं बजाय उसका अनुपालन करने के ,उलझनें वहीं से शुरू होती हैं ।अक्सर हम कई प्रश्नों को तो अनदेखा कर देते हैं और कई उत्तरों को आत्मसात भी नहीं करते किंवा सही गलत अच्छा बुरा से ज्यादा आवश्यक कर्तव्य परायणता क्या है सार्थकता क्या है उसके विषय में लोगों को बताना चाहिए मैं अपने माता-पिता की आभारी हूं कि उन्होंने मुझे सच्चा और पक्का होने को प्रेरित किया बजाए सही गलत काला सफेद अच्छा बुरा के दायरों में बांधने के, पारिवारिक मूल्यों के आधार को संबंधों की महत्ता को सार्थकता को छोटों बड़ों के यथा योग्य आचरण को उनके होने के सामर्थ्य को, सार्थकता को जिस सच्चाई और बारीकी से मैंने अपने माता-पिता से सीखा वह मुझे जीवन की पाठशाला में भी नहीं मिला। किंवा मुझे उनसे साहस और स्वप्न को मूल बनाकर प्रेम और मातृत्व को भाव देकर पालकर पुष्टकर  एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की अवधारणा को कैसे परिमार्जित परिष्कृत और घोषित किया जाता है यह मुझे मेरे आदर्शों ने ही समझाया माता-पिता स्वयं में संस्थान होते हैं यह मैं सुनती आई हूं बचपन से ,मैंने माना भी है और मैंने उन्हें जाना भी है अतः मैं बड़ी सहजता के साथ और सरलता के साथ स्वीकारने में संकोच नहीं करूंगी कि मैं उन आदर्शों के समतुल्य किसी और व्यक्तित्व को नहीं पाती, आध्यात्मिक होना दार्शनिक होना और योगी होना और राजनेता अभिनेता,होना सन्यासी होना धार्मिक होना सामाजिक होना अपने अपने आप में एक महत्वपूर्ण इकाई के स्वरूप में हर व्यक्ति हो सकता है पर सहज होना सरल होना समृद्ध होना विचारों से भावों से यह मुझे मेरे माता-पिता ने ही समझाया ।मेरे लिए महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप किस ओहदे में या किसी पद पर या किसी बहुत बड़े संस्थान में काम करते हुए बैठे हुए व्यक्तित्व को मानने और जानने की बातकरते हैं या एक बहुत साधारण सुंदर सुलझी सद गृहस्थ जीवन शैली में रहने वाले  दंपत्तियों को आपस में सामंजस्य सार्थकता के साथ जीने की बात है, मैंने यही जाना है कि जितनी सहजता सरलता से संबंधों का निर्वहन किया जाता है उतनी ही सहजता सरलता से आप जीवन के हर पायदान में आगे बढ़ते चले जाते हैं और नए आदर्शों को स्थापित करते चले जाते हैं तो बड़ा होना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना कि बड़ा जीना होता है और मैं उसी जीवन की परिकल्पना में रहती हूं और प्रयास करती हूं कि मैं उस आदर्श पूर्ण स्थिति में जीवन जी सकूं बड़ा करते हुए जीवन में स्थाई तौर पर संतोष की प्राप्ति है ना कि बड़ा होने में ।

जीवन के आदर्शों की उपस्थिति सत्याचरण स्वाध्याय सद्व्यवहार,सहजता सरलता में निहित है ऐसा मैंने मेरे आदर्श मेरे माता-पिता से जाना,एवं उसी को अपने जीवन में ढाल कर आगे बढ़ना भी उसी से प्राप्त किया। बहुधा मेरे मन में प्रश्न उठता है कि आदर्शों की सत्यापित अवधारणा के लिए मानव ह्रदय को कितने सारे मानक अध्ययन से होकर जाना पड़ता है किंवा हर बात की सत्यता को जांचना परखना इतना आवश्यक क्यों होता है ?बात वहीं आ जाती है कि सहजता और सरलता उसके नितांत सार्थक मानदंड है जो जीवन शैली को ही नहीं जीवन यात्रा को भी बहुत सुगम बना देते हैं।

हम सत्याचरण को प्रमुखता तो देते हैं पर क्या यह जान पाते हैं कि अनुपालन कैसे होता है? हम संस्कारों को पोसते तो हैं पर पोषित कैसे करते हैं यह क्या ध्यान देते हैं? हम साहित्य पढ़ते तो हैं पर सत साहित्य रचा कैसे जाता है क्या यह हम समझते हैं? हम धर्म को मानते तो हैं पर क्या उसे सच में जानते हैं यह कुछ बहुत ही आधारभूत प्रश्न है जानने के लिए, जिनको मैंने जाना और समझा और आदर्शों के रूप में पाला भी मैं कहती हूं तभी जब मैं स्वयं में स्थित होती हूं और तभी में प्रज्ञावान भी होती हूं मैं कुछ सार्थक रचती भी तभी हूं जब अपने आधारभूत आदर्शों को जी रही होती हूं ,तो कुल जमा मेरे जीवन स्तोत्र में आदर्श शांति, सद्भावना, प्रेम संस्कार शील हृदय ,मर्यादित भाव ,संकल्पित आचरण ,तपस्वी मन ,संतुष्ट चेतना ,प्रबल बुद्धि, अतुल बल, अमोघ विश्वास ,शुद्ध संबंध, सत्याचरण संयुक्त कामना ,और प्रसन्नता ही आदर्श हैं एक सहज सरल सार्थक जीवन जीने के लिये।

मेरे विषद जीवन अनुभव का सार तत्व मेरे माता पिता के निश्छल प्रेम,अथाह ज्ञान विज्ञान और अकूत संस्कार संपत्ति ही मेरे आदर्शों की जड़ रहे हैं। मेरा सामर्थ्य, बौद्धिक संपदा बन उन आदर्शों की खाद पानी मेरे माता-पिता ही रहे,जो सत्य असत्य ,योग भोग, दान पुण्य ,ध्यान विज्ञान,मान सम्मान,नेह देह ,शोध विरोध,शेष विशेष,विष विषय ,के बीच झूलते मानव जीवन को दृष्टांत को बड़े सहज भाव में मेरी विचार परिधि से एकाकार करते हुए स्वयं को एक आदर्श रुप में स्थापित करने को प्रेरित करते रहे हैं।

 

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