अदिति सिंह भदौरिया
नई दिल्ली से प्रकाशित हिंदी की त्रैमासिक पत्रिका शब्दाहुति की उप संपादक
पुस्तक प्रकाशित
– खामोशियों की गूंज ( काव्य संग्रह) को मध्य भारत हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा अनुदान हेतु चयनित किया गया। पंजाबी भाषा में अनुवादित रचनाओं का प्रकाशन, साझा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन
– साहित्य की विविध विधाओं में सतत लेखन
– मुख्यत: तात्कालिक विषयों पर लेखन में ज्यादा रुचि
– विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं, डिजिटल माध्यमों, वेब पोर्टल में रचनाओं का प्रकाशन
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चुनावी बहस और समझ से क्यों दूर होती हैं स्त्रियाँ
चुनावी माहौल वैसे तो ख़तम हो गया है लेकिन लोकतांत्रिक देश में चुनावी माहौल कभी भी खत्म नहीं होता। पराजित से ज़्यादा जीते हुए प्रतिनिधि को कटाक्ष सहने पड़ते हैं ।
जैसे- चुनावी वादे कभी पूरे करेंगे कि नहीं…देखते हैं अगली बार कैसे वोट मांगने आते हैं .वगैरह ..वगैरह।
लेकिन ऐसे जुमले पुरुष ज्यादा बोलते हैं ? क्या स्त्रियों को इन बातों में दखल मना है या फिर उन्होंने इन बातों को किचन में काम करते हुए एक कोने में अपने मोबाइल में चुनावी बहस को देखना ही चुनावों में अपना अहम योगदान मान लिया है | हम जब भी चुनावों की बात करते है उसका सीध प्रभाव मात्र राजनैतिक ही नहीं बल्कि सामजिक स्तर पर भी पड़ता है | सबसे महत्वपूर्ण यदि घर-परिवार का बजट सम्भालने की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर होती है , तो जब वे इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी को बखूबी सम्भाल सकती हैं तो चुनावों से संबंधित विषयों पर अपनी भूमिका में क्यों सीमित हो जाती हैं ?
वर्ष 1950 में महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया गया। इस एक बड़े कदम से महिलाएं अपने लिए एक अलग रास्ता बना सकती थीं | लेकिन ऐसा नहीं हो पाया । भारत में महिलाओं की दशा कभी एक जैसे नहीं रही बल्कि समयानुसार बदलती रही है | हम जब भी किसी बदलाव की उम्मीद करते है तो उसे एक आंदोलन का नाम दे देते है | स्त्री का चुनावी बहस में दखल एक अच्छा आंदोलन हो सकता है | समाज में चुनावों का भी अपना ही महत्व है | वर्तमान काल में भारतीय सरकार द्वारा महिलाओं के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं | यह कदम हमें यह संकेत देते हैं कि स्त्री किसी भी प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण आधार है, तो अपने महत्व को स्त्री को समझने में कितना और समय चाहिए ? स्त्री अपना पक्ष रखते हुए इस बात पर ध्यान देना कम कर दे कि लोग क्या कहेंगे । तो भला चुनावों के गर्मागर्म माहौल पर अपना अधिकार कैसे खत्म कर देंगे | इसमें भी स्त्री को अपने विचारों से ही सर्वप्रथम अपना योगदान देना होगा | अपनी रोजमर्रा जीवन में चुनावों को किसी अपने जीवन का एक अहम अंग बनाकर | अपने मुद्दों को सरकार के समक्ष रखना होगा | आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद 12 महिलाएं विभिन्न राज्यों कि मुख्यमंत्री बन चुकी हैं पर फिर भी राजनीति पर बात करना आम महिलाओं को अभी भी नहीं सुहाता | यह बात महिलाओं को शिक्षा पर भी प्रश्नचिंह लगाती है कि क्या मात्र डिग्री के लिए ही शिक्षा ली जाती है।
यह सत्य है कि समाज को एक सकारात्मक शिक्षा देने में स्त्री से ज्यादा सक्षम और कोई नहीं है | बस जरूरत है तो स्वयं स्त्री को अपने महत्व को समझने की | स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोतम थर्मामीटर है वहां की महिलाओं की स्थिति ]
आशा है चुनावी बहस, और इससे जुड़े मुद्दों पर पुरुषों की ही नहीं बल्कि स्त्री के अपने महत्व से नया और सकारात्मक रंग आने लगेगा |
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