डॉ. गरिमा मिश्र तोष

शिक्षा – एमए (अंग्रेजी साहित्य) ,शोध सस्टेनेबल रिलेशनशिप ,शास्त्रीय संगीत गायन विधा में विशारद

– व्यवसाय-शिक्षक /काउंसलर/रचनाकार

– प्रकाशन विवरण-

सात सांझा संकलन पुस्तक निम्नानुसार

1जिंदगी कभी धूप कभी छांव

,2.नीराजन,

3.स्त्रीत्व,

4.जिंदगी जिंदाबाद ,

5लिट्रोमा कल्चर फ्लैश,

6.माय फादर माय स्ट्रेंथ,

7 नज़्मेहयात

स्वतंत्र प्रकाशित संकलन

1.तोष काव्य संकलन

2.भावानुबंध उपन्यास

3.साद कहानी संकलन

4.सुनो आरात्रक जो कहती हूं काव्य संकलन

5.इख़लास अशआर संग्रह

एक उपन्यास और काव्य संकलन प्रकाशन को गया है

सम्मान  –

1.महू कैंट से महिला सशक्तिकरण एवं लेखन में योगदान के लिये नारी गौरव सम्मान

2 कालिकट लिट्रेचर फर्म लिट्रोमा से दो सम्मान 2019 में आथर ऑफ द इयर,2020में अचिवर ऑफ द इयर

3.वर्ल्ड बुक ऑफ लंदन से प्रशंसा पत्र काव्य महारथी 2021

4.अंतर्राष्ट्रीय हिंदी साहित्य महिला मंच  से मातृशक्ति अवार्ड 2021

5.अटलबिहारी बाजपेयी स्मृति में अटल हिंदी रत्न सम्मान 2021.लगभग अठारह वर्षों से सतत रचनात्मक ,आध्यात्मिक आत्मिक एवंं संबंधात्मक गतिविधियों एवं उन्नयन हेतु सेवारत

9425544572 (वाट्सएप काॅल)

इंदौर में निवास

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        मैं कौन हूं

ऋषि कपिल जी ने सांख्य दर्शन में कहा है कि मूल में मूल न होने से अमूल होता है, अतः आत्म विष्लेषण को तत्पर आत्मा यदि मूल भाव और हेतु को समझ कर ज्ञान और वैराग्य को मनसा वाचा कर्मणा धारती है तभी समस्त भौतिक विकारों योगों बंधनों से मुक्त हो कर अमूल होता है,हम सब ने कभी न कभी स्वयं से यह प्रश्न किया होगा कि मैं कौन हूं?मेरे होने और उसका मूल भूत कारण क्या है?क्या मात्र नाम,कुल गोत्रधारी,रूप देह इन्द्रियों,मन, बुद्धि की परिधि में झूलता जन्म जन्म की यात्रा हूं?या एक जड़ चेतन क्षय, वृद्धि, उत्पत्ति,विनाश के चक्र में बंधा तत्व या सार्थक सत्व की प्राप्ति को अग्रसर प्रेमल आत्मा। दृष्टा से परम दृष्टा होने की यात्रा, सृष्टा से सर्वसृष्टा को जानने की यात्रा, दृश्य से दृष्टांत की यात्रा को ही आत्मज्ञान  वैराग्य और ध्यान संज्ञान की स्थिति मान मान सकते हैं।

मेरे विचार से मैं कौन हूं ?मैं हूं एक अणु परमाणु से युक्त ब्रह्मांड की अत्यंत महत्वपूर्ण इकाई, जो सत्व से तत्व ,तत्व से परम तत्व को जुड़ना सिखाती है, जीवन के समस्त भावों अनुभव विचारों आचरणों को जीते हुए , समस्त रसों का आस्वादन करते हुए उन से मुक्त होने का रास्ता दिखाती हुई ,एक आत्मा जिसमें परमात्मा के लिए प्रेम निरंतर अबाध गति से बहता हो ,जिसमें योग संयोग वियोग से परे ईश्वर में समाहित होने का निर्झर झरता हो उस आत्मा के स्वयं से मिल जाने की महत्वपूर्ण इकाई के स्वरूप में मैं इस प्रश्न को पाती हूं कि, मैं कौन हूं?

“वासांसि जीर्णानि “शरीर एक वस्त्र है जिसे हम सच में मान लेते हैं कि यह हमेशा के लिए, सदैव के लिए है ,नाना प्रकार के संबंधों में जुड़कर भ्रम पाल लेते हैं कि ,हम हैं तो यह हैं या यह संबंध हैं तो हम हैं ,असल में जन्मों जन्म के संबंधों को जीते हुए एक बौद्धिक अभ्यास लेकर के हम आ जाते हैं उस अभ्यास की निरंतरता से छूटने के लिए ही यह प्रश्न एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम करता है, कि  मैं कौन हूं?

मैं कौन हूं की जिज्ञासा बंधनों की अवशता, विवशता ,जन्म मृत्यु के कष्ट, काया के क्षरण मान अपमान की परिधि के ,साथ वियोग के नितांत कष्टकारी अनुभवों से मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करता हुआ आध्यात्मिक प्रश्न है कि मैं कौन हूं? अपने जीवन के एक चरण में हर व्यक्ति यह प्रश्न स्वयं से निश्चित ही पूछता है कि मैं कौन हूं ?यह चेतना कहां से आई है?

आदिकाल से प्राचीन काल से यह प्रश्न उठता रहा है जब से अस्तित्व रहा चेतना का, विशेष रूप से पश्चिमी दार्शनिकों और आधुनिक वैज्ञानिकों ने इसका उत्तर ढूंढना चाहा, विज्ञान कहता है कि हम धीरे-धीरे सरल उप परमाणु कणों जैसे ग्लुओंस, म्युओंस, और क्वार्क इत्यादि से जटिल प्राणियों में विकसित हुए इन कणों के साथ-साथ बंधने पर परमाणु बने फिर परमाणु से हमारे अणु बने, आगे जाकर ऑर्गेनिक अणु से वे पदार्थ जिन्हें हम देख और समझ सकते हैं वह बनते हुए आखिर में हम सचेत प्राणी जिनके पास शरीर मन और चेतना है ,जो जागरूकता पैदा करती है जो हमें अनुभवों का एहसास करवाती है, हम वह बन गए, परंतु वैज्ञानिक  यह समझने में आज भी असफल रहे हैं कि उप परमाणु कणों से पहले अस्तित्व में क्या था? यह चेतना हमारे अंदर कैसे आ गई? चेतना का अस्तित्व कैसे जन्मा? हमारी वास्तविक पहचान क्या है?

“मैं कौन हूं “सिर्फ तीन शब्दों से जुड़ी हुई एक ऐसे अंतिम प्रश्न को जन्म देती कड़ी है जिसमें आदि काल से आज तक खोज नवीनता के प्रयोग होते आ रहे हैं आत्मा से जिज्ञासा से संबंधित एक ही वस्तु एक ही तत्व महत्वपूर्ण है उसमें की आत्मा चेतना जो हमें परमात्मा से बांधती है जो हमें ब्रह्मांड की सर्वश्रेष्ठ इकाई होने की ओर अग्रसर करती है उसके “स्व “को उसके हेतु को उसके सत्व को जान लेने की यात्रा ही है मैं कौन हूं?

मेरे विचार से  हम संबंधों में भाई बंधु माता-पिता बच्चे मित्र नातेदार रिश्तेदार इनमें बंध कर स्वयं के अस्तित्व को नहीं झुठला सकते देहातीत अवलोकन और नितांत सार्थक दृष्टांत के बाद ही उस साक्षात्कार को संपूर्ण कर सकते हैं जिसे आत्मज्ञान या ज्ञान योग कहा जाता है ,जिसमें संपूर्ण चेतना सच्चे आनंद की प्राप्ति और खोज के लिए पुनः पुनः जन्मती है ,मात्र ईश्वर के अंश को चैतन्य स्वरूप में मानकर आपसी सामंजस्य बैठाते हुए ज्ञान की भक्ति की आत्म संतुष्टि की यात्रा में परिष्कृत होती है। शक्ति के स्वरूप को सार्थकता के साथ समझकर जब आत्मा स्वयं से संवाद स्थापित कर परम तत्व के तत्व में विलीन होती है तब मैं कौन हूं का वास्तविक अर्थ का ज्ञान होता है। मेरे विचार से मैं जन्म जन्म से संबंधों के मान अपमान उपेक्षा पीड़ा आदि के सशक्त आधारों को ढोती बिंधती उनसे मुक्ति पाती ,ज्ञान की चेतना को धरती प्रेम के बल से स्वयं को सजाती  एक चैतन्य दृष्टा आत्मा हूं जिसमें स्वयं के साथ-साथ परोपकार का संधान और निष्पादन है मैं सतत आबाध सरिता सी विशाल जीवन दृष्टांत को जानती जीती समझती चिदानंदमई आत्मा हूं।

मैं एक सत्य,चैतन्य,दृष्टासाक्षि नित्यता लिखते अविनाशी,अकारी,समस्त दुख-सुख रहित शुद्धचिदानंदमयी आत्मा हूं ,जिसके संज्ञान के लिए ही मनुष्य स्वरुप में आना होता है, बिना मानव देह धारण किए हम कभी सुख दुख ,अपने पराए, ज्ञान विज्ञान संग ,ज्ञान वैराग्य की अवधारणा को ना तो जी पाएंगे ना ही समझ पाएंगे इसीलिए हमको कोरी देह ले कर मनुष्य स्वरूप में जन्मना होता है और जीवन के उन सभी सरल कठिन भावों, रास्तों विकारों विचारों और आचरणों से होकर निकलना होता है। इस स्वयं की प्राप्ति की यात्रा में जो आत्मा जीवन की क्षणभंगुरता को और आत्मा की सार्थकता को समझ लेती है उसको” मैं कौन हूं “का वास्तविक अर्थ प्राप्त हो जाता है ,देखा जाए तो हम देहधारी सांस लेते इच्छा विचारों सपनों और उनके अपने, अपनों के बीच झूलते हुए स्वयं को हमेशा के लिए मान लेते हैं कि सृष्टि का अंग बन चुके हैं ,जब की आयु बढ़ेगी ही, देह की वृद्धि होकर पूरी होगी एक दिन उसका क्षरण हो जाएगा और वह समाप्त हो जाएगी इस सार्थकता को इस तत्व को हमें उसके समाप्त होने के पहले समझ लेना है ,उसके बाद की यात्रा के लिए क्योंकि आत्मा तो अनंत है और उसकी यात्राएं भी अनंत है परमात्मा के बनाए इस संसार में अपने आप को जानते हुए अपने भीतर सृजन और उत्सर्जन विसर्जन करते हुए एक आत्मिक प्रकाश को जन्म देते हुए जो आत्मा इस अवधारणा में जीती है वही सच में जान पाती है कि” मैं कौन हूं “।

मेरे विचार से मैं स्वयं को एक प्रकाशमान शांति दाई ज्ञान उन्मुख चिदानंद आत्मा मानती हूं।शक्ति के प्रकाश को स्वयं में धारते हुए ज्ञान की दृष्टि को जगाते हुए आत्म जिज्ञासा सोपान पार करते हुए यदि कोई आत्मा बढ़ती है तो पूरा अस्तित्व एकजुट होकर के स्वयं से सवाल करता है प्रश्न करता है कि मैं कौन हूं?जब प्राणों  से एक ही विकल गूंज उठती है कि मैं कौन हूं ?जब ज्ञान योग की यात्रा आत्मज्ञान से आरंभ होती है। सुबह उठकर नित्य कर्म करके भोजन करके सज संवर कर अपनी दैनंदिन दिनचर्या को करने वाला सामाजिक संबंधों और बंधनों को ढोने वाला यह शरीर भौतिक वस्तुओं और उनके उपयोग में डूब कर अपने असल अस्तित्व को लगभग भूल जाता है ,जब उसे दुख पीड़ा  वियोग या एकाकी होने का अवसर मिलता है और वह आकंठ उस भाव समिधा से हविष्य कर स्वयं को समर्पित कर स्वयं के भाव,विचारों की समिधा बना कर आत्म उत्सर्जन करता है तब , तब वह जान पाता है कि उसका मूल उत्पत्ति कारण, उसका असली हेतु इस जीवन में आने का क्या है ?परमात्मा की कृपा से ही संज्ञान की बुद्धि खुल पाती है” मैं कौन हूं” का जो प्रश्न है वह नियमित हर आत्मा को जोड़ने का सार्थक प्रयास होता है, कि उसका “इस विश्व में इस ब्रह्मांड की परिधि में किसी विशेष हेतु से जन्म हुआ है ,उसी हेतु को जानने समझने और ढूंढ निकालने की यात्रा में मैं कौन हूं सबसे बड़ा प्रश्न  या कुंजी का माध्यम है।

इसके बारे में महर्षि अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं- तेन ज्ञान फलम प्राप्तं योगाभ्यासं फलम तृप्तः स्वच्छेद्रियों नित्यमेकाकी  रमते तुयः अर्थात उसे ही ज्ञान और योगाभ्यास का फल प्राप्त होता है जो तृप्त है शुद्ध इंद्रिय वाला है और सदा एकाकी रमन करता है अर्थात स्वयं की पूरी अवधारणा को उत्पत्ति के ज्ञान को ,विज्ञान को जानना हो यदि, तो एकाकी होकर तटस्थ होकर संयुक्त होकर ही व्यक्ति स्वयं को जान पाता है। अपने वास्तविक अस्तित्व से परिचय प्राप्त करने के लिए ज्ञान योग ही एक अनिवार्य साधन है,आत्मा की अनिवार्य पहचान यही है कि शुद्ध इंद्री होनी चाहिए आपका मन वचन कर्म शुद्धता से भरा हुआ होना चाहिए, और सूक्ष्म शरीर की पवित्रता ही साधक को पूरी तरह से तृप्ति देकर भाव पूर्णता से संवाद करना और परिचित होना सिखाती है। सूक्ष्म शरीर को पवित्र करने के लिए इंद्रियों का स्वच्छ होना, चेतना की संवेदनशीलता , आत्मज्ञान की इच्छा ,परमात्मा की चेतना कृपा ,यही कुछ मूल अवधारणा जो कि हमें आधारभूत नियमों से जोड़ते हुए ब्रह्मांड के उन रहस्यों से परिचित करवाते हैं जिन्हें हम स्वयं तो कभी जान ही नहीं सकते, अतः मेरे विचार से जीवधारी देह यदि संयमित भाव विचार आचरण और जीवन शैली को अपनाती है तो उसे निश्चित ही कुछ प्रतिशत स्वयं के अस्तित्व के बोध का ज्ञान हो जाएगा ,ज्ञान की उत्पत्ति ज्ञान की खोज, ज्ञान का हेतु आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को परिलक्षित करता है और जीवन के स्वतंत्र अस्तित्व को दीक्षित करता है।मेरे विचार से “मैं “के भाव को विसर्जित कर परमतत्व में समाहित होकर आत्मज्ञानी चेतना बन संसार में सद्कर्मों की आधारशिला रखना ही मानवजीवन की श्रेष्ठता को सार्थकता प्रदान करने का सहज सरल साधन है। मेरे विचार से जीवन की निरंतरता सदैव प्रेम से जुड़े रहने में ही है हर प्रश्न के उत्तर को स्वयं में स्थित प्रेम प्रज्ञा से ही जुड़कर हम जान सकते हैं, वैसे भी कहीं भी किसी भी उपनिषद में वेद में पुराणों में भाव ग्रंथों में पौराणिक ग्रंथों में यह नहीं लिखा है कि आप किसी तर्क से सत्य को जान पाएंगे आप समर्पण से ,प्रेम से भाव से ही सत्य को जान सकते हैैं और आत्मा के परिमल प्रकाश में ही जीवन के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है।

मैं  अनुभूत करती हूं, स्वयं में जब स्थितप्रज्ञ रहती हूं,जब प्रेम भाव से बंधी होती हूं तो ही जटिल से जटिल प्रश्नों के उत्तर प्राप्त कर पाती हूं ।तर्क हीन होकर ,कुतर्क हीन होकर सतर्क होकर प्रेम मगन होकर ही जीवन के सत्व सार्थकता को जाना जा सकता, सभी कठिन भावों विचारों अनुभवों को एक ओर रखकर क्षण क्षण में बीतते प्रकाश की गति से जुड़े समय के मानक को जोड़ घटा के जीवन की उपलब्धि में यदि मैं रखूं तो स्वयं को संतुष्ट प्रेमल आत्मज्ञानी ज्ञानोन्मुखी आत्मा के अलावा कुछ नहीं पाती हूं मैं एक चिदानंदमई आत्मा हूं, जो सनातन समय मानक ऋषि-मुनियों द्वारा दिए भाव विचार उनके आधारभूत मानकों की आभारी हूं जिन्होंने सत्त्व तत्व और परम तत्व के अस्तित्व को जीना जानना समझना मेरे लिए आसान कर दिया।

( मौलिक रचना सर्वाधिकार सुरक्षित )

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