अंजु श्रीवास्तव निगम

( लेखिका, देश के प्रमुख प्रकाशनों में रचनाओं का लगातार प्रकाशन, साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन, कई सम्मान व पुरस्कार प्राप्त, आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण, लखनऊ में निवासरत )

हाल ही में  उदयपुर जाना हुआ । वहाँ के इतिहास के कुछ पन्नों को छूने का सुनहरा अवसर मिला।

राजा सग्रांम सिंह  द्वारा  अपनी रानियों के लिए बनाया ‘ सहेलियों की बाड़ी’ का उल्लेख मैं विशेष रूप से करना चाहूँगी।फतेह सागर झील से महज 3 किलीमीटर के फासले पर ‘ सहेलियों की बाड़ी” स्थित है।पहले ये बाड़ी राजा के अधीन थी बाद में सरकार ने इसे अपने अधीन कर आम जनता के लिये खोल दिया। कुल मिला कर यहाँ 5 तलाई ‘हैं। जिनके बनने के पीछे दिलचस्प कहानियाँ प्रचलित हैं।

पहली  तलाई ‘ स्वागत तलाई’ है। रानियों के आग्रह पर राजा ने इस ‘बाड़ी’का निर्माण करवाया था। परपंरा के अनुसार फूलों से मेहमानों का स्वागत किया जाता है पर यहाँ कतार से लगे फव्वारों से यह पंरपरा निभाई गई। उस समय बिना बिजली के इतने ऊपर पानी ले आना भी अपने आप में मिसाल है।इसके लिए सुरंग द्वारा ८० फीट ऊँचाई पर स्थित फतेहसागर झील से पानी ले आने की व्यवस्था की गई।

कहा जाता हैं कि जब इन फव्वारों का निर्माण हुआ  तब इसमें से निकलता पानी 10 फीट की ऊँचाई छूता था पर बाद में पानी की किल्लत के चलते सुरंग में दीवारों का इस तरह निर्माण किया गया कि इनकी ऊँचाई घट कर दो-तीन फीट रह गयी ।

इससे आगे जाने पर जो फर्श बनाया गया था उसके पत्थर जोधपुर और जयपुर से मगँवाये गये थे। बनाने का तरीका कुछ ऐसा था कि ये लहरों सा आभास दिलाता था।

आगे चलने पर ऊँची दीवारों से घिरा खुला सेहन है। बीचों-बीच गोल घेरे में रानियों के नहाने के लिए ताल बना है। इस ताल का नाम जितना दिलचस्प है इससे जुड़ी कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है।

इस फव्वारे का नाम है ‘बिन बादल बरसात’। है न दिलचस्प नाम!

इस फव्वारे में ताल के बीचों-बीच नक्काशीदार मीनारों पर खड़ा ,फव्वारा बना है।  मीनारों के बीच से पाइप  मीनार और गुबंद के बीच तक खिंचा गया है।पानी  चलने पर मीनारों और गुबंद के बीच से चारो तरफ  निकलता  पानी  ताल में गिरता है जो बरसात होने सा आभास कराता है।

इसी चारदीवारी के अंदर रानियों के लिए एक “गीन्र रूम” भी बनाया गया था। ऊँची चारदीवारी इसलिए की बाहर के किसी भी इंसान की नजर इस ताल पर न पड़े। वैसे भी इस बाड़ी में राजा के अलावा किसी भी आदमी का प्रवेश वर्जित था।

इस फव्वारे से निकल कर जो लंबी सी पगडंडी चलती है उसके दोनों तरफ फूलों के पौधे लगे थे।आगे बांयी तरफ मनोरम “सावन भादो” फव्वारा आता है।

ये फव्वारा ज्यादातर गर्मियों एंव सावन के महीने में  उपयोग किया जाता था। इसमें चारों ओर गोलाई में घने पौधे लगाए गये थे। इसी के आगे गोलाई में ही छोटे फव्वारे लगाए गये। जब इनसे निकलता पानी पोधों में गिरता था तो “rain forest “सा आभास होता था।

इन फव्वारों के आगे ठोस जमीन बनी थी और बीचों- बीच एक बड़ा फव्वारा बना था ,जिसका पानी 10 फीट से ऊँचा जाता था। इसके चारों कोनों में आम के पेड़ लगे थे जो गर्मियों के मौसम में आम के साथ प्राकृतिक वातानुकूलन का भी काम करता था। इन्हीं आम के पेड़ों में सावन के झूले पड़ा करते थे और एकदम उत्सव सा माहौल रहता था।

आगे चल आता था “कमल तलाई” ।नाम के अनुसार ये”‘तलाई” कमल के फूलों से अटी रहती थी।

“कमल तलाई” की बात करे तो ये अपने आप में अनूठा  फव्वारा था। इसके एक तरफ हाथी की मूर्ति लगी थी जिसकी सूड़ से पानी निकलता था। पानी की धार से रानियाँ मौसम और फतेहसागर झील में पानी के स्तर का पता लगा लेती थी। अगर पानी की धार दूर तक पड़ती तो अच्छा जलस्तर होने का अनुमान रहता। मूर्ति के ठीक सामने राजा के बैठने का ऊँचा आसन बनाया गया था एवं पीछे की तरफ रानियों के बैठने का झरोखा था। झरोखे की सजावट ठेठ राजपूताना कला को दर्शाती थी। राजा के आने पर रानियाँ यहाँ इकट्ठा होती और अपनी समस्याएं रखती थी।

कहा जाता हैं कि इस फव्वारे के बनने के  अरसे बाद किसी ने इस “तलाई” में “कुमुदिनी” के बीज डाल दिये थे। उसके बाद से इस तलाई में कमल की जगह कुमुदिनी के फूलों ने अपना आधिपत्य जमा लिया।

अब आखिरी”तलाई” की ओर हम चले। जैसे” सावन भादों” तलाई गर्मी के मौसम को सोच कर बनायी गई थी उसके उल्ट ये तलाई सर्दी के मौसम को ध्यान में रख कर बनाई गयी थी। इसका नाम” रास रंग” तलाई था। इस तलाई में रौनक होली के रंगों से शुरु होती थी।चारों ओर से खुली ये तलाई भी गोलाकार घेरे में ही बनी थी पर इसमें पौधों की तादाद बहुत कम थी।

होली के दिन इस तलाई में रंग भर दिया जाता था। ” सहेलियों की बाड़ी” में रानियाँ और ” सिटी पैलेस” में राजा होली खेलते थे। फूलों की होली खेलने का यहाँ भी रिवाज था। वैसे भी उस समय सारे रंग ” टेसू” के फूलों से ही बनाए जाते थे। रात में रंगारंग कायर्क्रम होता था जिसे थोड़ा अलग हट कर बने झरोखें से  रानियाँ देखती थी।माहौल बहुत ही उल्लासपूर्ण हो जाता था।

इस “तलाई” से निकलते ” golden cypress”  ऐसे लग रहे थे मानों वे आपको  आपको अलविदा कह रहे हो।

“सिटी पैलेस” उदयपुर का पूरा इतिहास मानो इसमें सिमट आया हो

फतेहसागर झील से माञ 3 किमी दूर “सिटी पैलेस” बना हैं। उदयपुर का पूरा इतिहास मानो इसमें सिमट आया हो। प्रवेश फीस 260  एंव 280 रु है। चार मंजिला इस पैलेस के ठीक पीछे पिछोला झील दिखाई पड़ती हैं और दिखायी पड़ता हैं ” उदयपुर पैलेस”।

इन मंजिलो में अपनी-अपनी खासियत लिये कई कलेक्शन है। जैसे पहली मंजिल में उदयपुर के इतिहास के बारे में पूरा वर्णन था।  उनका स्नानघर तक पाश्चात्य प्रभाव लिये था|

चौथी मंजिल जाने पर आपको पिछोला झील का विहगंम दृश्य तो दिखेगा साथ ही सेहन के बीचो-बीच फलता-फूलता छोटा सा बाग भी दिखेगा| उस समय चौथी मंजिल पर इस तरह बाग बनाना भी अपने आप में एक उपलब्धि है  एक बड़े फ्रेम में उदयपूर के तब से लेकर अब तक के सारे राजा के विषय में जानकारी दी गयी हैं।कहा जाता है कि राजा सग्रांम सिंह की कोई औलाद नहीं हुई अत: उन्होने दत्तक पुञ लिया ,जो परिवार से ही लिया गया था।

ये पूरा महल दो हिस्सो में विभाजित है। मर्दाना महल और जनाना महल। मर्दाना महल में एक विशाल हिस्सा उस समय प्रयोग में लाये गये शस्ञों को समर्पित है। आज की “राजपुताना राइफल्स” के वंशजो ने ही उदयपूर के इतिहास में अहम भूमिका निभायी जो अपने शौर्य और वीरता के लिए आज भी जानी जाती हैं।

मदार्ना महल में एक स्थान हैं।जिसमें “कुलदेवता” का मंदिर हैं। एक फकीर ने ये कहा था कि किसी भी युद्ध में जाने से पहले यहाँ माथा टिकाने से कभी भी राजा को हार का मुँह नहीं देखना पड़ेगा और होता भी यही था। इसी महल में एक कमरा है जो राजा का आरामघर था और वह आज भी जस का तस बना हुआ है। राजा का बिस्तर सुंदर राजा का बिस्तर सुंदर एंव नक्काशीदार बिछोने से ढका है। पढ़ने की मेज- कुर्सी सब शालीनता से अपनी जगह जमे हुए है। चुंकि राजा संग्राम सिंह के पैर चलने लायक नहीं थे अतः उस समय में भी वे आज प्रयुक्त होने वाली ” व्हील चेयर” में चला करते थे।

जनाना भाग में कमरे की सज्जा की ओर विशेष ध्यान दिया गया था। दीवारों और छत की रंगीन पत्थरों से की गई नक्काशी देखने लायक है।चुंकि रानी छोटे कद की थी अतः उनका बिस्तर भी उसी आकार का बनाया गया था।

रानी के प्रयोग में लायी जाने वाली चीजों के अलावा एक चीज ने जो सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया वो था बिजली का पंखा। उस दौरान बिजली की व्यवस्था नहीं थी । पंखे को चलाने के लिए तेल डाला जाता था और उसी के भार से पंखे की मशीनें चलती थी। बिजली या बैटरी जैसी किसी भी चीज का इस्तेमाल इसमें नहीं होता था।उनका स्नानघर तक पाश्चात्य प्रभाव लिये था।

इसके अलावा तत्कालीन राजा के ससुराल से आने वाली चांदी की बग्गी भी रखी है  जिसमें रानी पहली बार विदा होकर ससुराल आयी थी। चांदी की ही बनी कितनी ही चीजे यहाँ रखी गई हैं।

एक कमरे में, जो रानी के कमरे से सटा था उसमें लिफ्ट का भी प्रावधान था। उससे ही आगे चले तो एक कमरे में ऊँचे आसन में राजा और उनकी पटरानी के बैठ कर खाने का स्थान बना है। उसके ठीक नीचे अन्य रानियों के खाना खाने की व्यवस्था की गई थी।

बरसात के मौसम में जब सूरज के दर्शन नहीं होते थे उस समय के लिए दीवार में ही सूरज की बड़ी सी सोने की बनी आकृति बनायी गयी हैं राजा और रानी दूर से बैठ कर ही इसके दर्शन कर लेते थे। तीसरी मंजिल में एक लंबा और चौड़ा कमरा बनवाया गया था जहाँ रंगीन शीशे लगे थे।यहाँ से रानियाँ बैठ कर नीचे हो रही गतिविधियाँ देखती थी।

महल का सारा वैभव आत्मसात कर हम महल के बाहर आ गये।

उदयपुर का ये सफर तो खत्म हुआ पर यादों में हमेशा बस जाने के लिए।

2 Comments

  • निशा बुधे झा, March 24, 2022 @ 4:35 am Reply

    वाकई बहुत सुंदर उदयपुर, जयपुर और राजस्थान की अनकही कहानी और गाथाएं। उस पर जितना भी लिखा जाए कम है। अभिनंदन अभिनंदन आदरणीय 🙏🌹🌹🌹🌹🌹💕

  • Megha, March 24, 2022 @ 2:34 pm Reply

    बहुत रोचक अंदाज में लिखा गया है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *