सृष्टि में सृजन -प्रक्रिया को सतत् रखने के लिए प्रकृति ने बहुधा प्रजातियों में नर – मादा का प्रावधान किया। मानव जाति में यही स्त्री- पुरुष लिंग के रूप में जाना गया। जैसे जैसे मानव ने सभ्यता और संस्कृति के सोपानों को पार किया; वैसे वैसे समय और स्थिति के अनुरूप उसने अपने आचार विचार और व्यवहार में नीति निर्धारण किया, और आधुनिक समाज के स्वरूप को प्राप्त किया।
डॉ ज्योति सिंह
नर- नारी वैसे तो एक दूसरे के पूरक हैं; पर अपनी शारीरिक और मानसिक बनावट के कारण नारी व पुरुष की भूमिकाएं थोड़ी सी भिन्न बना दी गई, जिससे एक स्वस्थ समाज आकार ले पाए ।लेकिन शारीरिक भिन्नता और स्त्री सुलभ कोमलता का पुरुष वृत्ति ने फायदा लेकर स्त्री को अपने हिसाब से गढ़ना प्रारंभ कर दिया ।इसी अधिकार लिप्सा की पुरुष व्रत्ति ने स्त्री के आदर्श प्रत्ययों की रचना की जिसमें उसे देवी स्वरूपा बना दिया गया। क्योंकि पुरुष के आकर्षण, प्रेम और अधिकार का आलंबन स्त्री ही थी इसीलिए समाज के सामूहिक अवचेतन में स्त्री की देवी स्वरूपा मूरत को प्रतिस्थापित कर उसे सम्मानित किया गया श्रद्धा और आस्था का केंद्र बना दिया गया। नहीं हमसे एक चूक हो गई नारी देवी बनकर महान हो गई पर उसकी अपनी पहचान यहां होने लगी और त्याग शीलता इतनी बढ़ गई कि वह अपने को पुरुष और परिवार में न्योछावर करने को ही अपनी गति मानने लगी। नारी का जीवन सृष्टिकर्ता ने तो वरदान के रूप में बनाया था । परंतु सामूहिक सामाजिक अवचेतन ने उससे व्यक्ति बनने की स्वतंत्रता छीन ली।
स्त्री विमर्श की एक बहुत प्रचलित पंक्ति है” स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है।( सोमन द बबोआ) एक लंबे स्त्री विमर्श और संघर्ष के बाद हमारा समाज अब स्त्री को व्यक्ति और मानव मानने के लिए तत्पर हो उठा है।जिसका परिणाम है कि प्रति वर्ष हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं जिसका उद्देश्य स्त्री के प्रति अपना राग- अनुराग ,श्रद्धा -प्रेम और कृतज्ञता दिखला ना ही है इस अवसर हमें आत्ममंथन की आवश्यकता है।कि हमेशा क्या करें जिससे स्त्री पुरुष के समतुल्य हो और स्वयं को सिद्ध कर सके। स्त्री स्वातंत्र्य का अर्थ कदापि पुरुष हो जाना नहीं है बल्कि नारी सुलभ सारे गुणों को धारण कर समाज में अपनी एक सुंदर छवि का निर्माण करना ही है। इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए संपूर्ण नारी जाति को एकजुट होकर संकल्पित होना होगा जब नारी स्वयं दूसरी नारी के संग संवेदना- सहिष्णुता से व्यवहार करेगी। तभी पुरुष की मानसिकता में परिवर्तन हो पाएगा ।इसकी शुरुआत हर स्त्री को अपने परिवार से ही करनी होगी। पुरानी सोच में पारिवारिक दायित्वों को निभाने में या यूं कहें सब जिम्मेदारियों को ओढ़ कर स्त्री स्वयं को भूल जाती है। स्वयं के शारीरिक -मानसिक स्वास्थ्य पर अब उसे ध्यान देना होगा शिक्षा ,ज्ञान और अपने कौशल को बढ़ाकर अर्थ उपार्जन करना होगा ।अपनी सुरक्षा जिजीविषा और अस्मिता को बनाने के लिए उसे कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना होगा। जैसे शिक्षा ज्ञान और अपने कौशल को बढ़ा आत्मनिर्भरता आत्मविश्वास बढ़ाना होगा। उसे अपनी रुचियों को परिष्कृत करना होगा ।और संभव हो तो अपनी इन्हीं रुचियां ओ को वह अपना काम भी बना सकती है। घर के दायित्व में पुरुषों की सहभागिता बढ़ानी होगी। बच्चों के पालन -पोषण हिस्सेदारी में बेटी बेटीमें समानता लानी होगी ।कार्य निष्पादन किसी लिंग विशेष के द्वारा ही संपन्न हो ऐसी कोई शर्त नहीं होती ।घर का कोई भी कार्य कोई भी परिवारिक सदस्य कर सकता है चाहे वह बेटा हो या बेटी माता हो या पिता। शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही अपने मानसिक स्वास्थ्य दिमाग की सोच को अमूल परिवर्तित करना होगा कुछ सामान्य व्यवहार भी उसे स्वस्थ जीवन शैली प्रदान कर सकते हैं जैसे उसे जीवन सहजता से जीना शुरु करना होगा तनाव रहित होकर। नारी किसी भी रूप में सुंदर ही होती है इसलिए उसे मानसिक सौंदर्य पर अधिक ध्यान देना होगा बजाए बाहरी सौंदर्य प्रसाधन और ड्रेस कोड आदि के ।असली धन और संपदा मस्तिष्क में बन रही हमारी सोच ही है यदि वह सकारात्मक हुई तो स्त्री को समाज में अपनी पहचान स्वयं ही मिल जाएगी। जो एक मानवी की होगी।
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