मध्य प्रदेश की पत्रकारिता के कमल  दीक्षित एक चमकते सितारे थे । भले ही मार्केटिंग से दूरी बनाए रखने के चलते राष्ट्रीय स्तर पर प्रदेश के जिन चुनिंदा पत्रकारों का नाम लिया जाता है , कोई उन्हें उस पंक्ति में ना रखें । दीक्षित जी ने कभी उनकी परवाह भी नहीं की । 

                                           क्रांति चतुर्वेदी

 सर, इस तरह याद रहेंगे सदैव…

–फक्कड़ी और अट्टहास उनके स्वभाव के अलंकार थे । उनकी यही संपदा भी थी …

–प्रथम पृष्ठ पर नव भारत में राष्ट्र ज्योति बुझ गई … शीर्षक उन्हीं का दिया हुआ था ,जिसकी चर्चा उस समय पूरे देश में हुई थी …

–वे कभी घर में नहीं बैठते थे ,फिर कैंसर ही उनसे क्यों ना गलबहियां करता हो…

वरिष्ठ पत्रकार, संपादक, लेखक, आलोचक और पत्रकारिता और जनसंचार के अकादमिक प्रोफेसर के अलावा भारत के अनेक क्षेत्रों में सक्रिय पत्रकारों के गुरु जी कमल दीक्षित जी का दुनिया से चले जाना उनके अनेकानेक अनुयायियों के जीवन में रिक्तता भर गया है । वह ऐसे पत्रकार रहे हैं जिनसे यदि किसी ने अधिकृत शिक्षा प्राप्त नहीं की और ना ही उनके सानिध्य में काम किया , लेकिन शर्त यही थी कि कोई उनके एक बार संपर्क में आ जाए ,अथवा उनका भाषण सुन ले या उनकी सीख ग्रहण कर ले तो वह उनका मुरीद हुए बिना नहीं रह सकता था । मध्य प्रदेश की पत्रकारिता के कमल  दीक्षित एक चमकते सितारे थे । भले ही मार्केटिंग से दूरी बनाए रखने के चलते राष्ट्रीय स्तर पर प्रदेश के जिन चुनिंदा पत्रकारों का नाम लिया जाता है , कोई उन्हें उस पंक्ति में ना रखें । दीक्षित जी ने कभी उनकी परवाह भी नहीं की । फक्कड़ी और अट्टहास उनके स्वभाव के अलंकार थे । उनकी यही संपदा भी थी ।

दीक्षित जी अक्सर एक बात कहा करते थे – पत्रकारिता में यदि आए हो तो पांच साल सतत ऐसे मेहनत करो बिना किसी अपेक्षा के , जैसे एमबीबीएस का विद्यार्थी डॉक्टरी की पढ़ाई करता है । पांच साल सतत तपने के बाद फिर कुछ सोचना । इस नाचीज ने पत्रकारिता की शुरुआत नवभारत में कमल दीक्षित जी के संपादकत्व में ही की । किसी भी घटना क्रम पर विश्लेषण ,आलेख , टिप्पणी ,सम्पादकीय लिखने के लिए वह हम जैसे नए पत्रकारों को अवसर देते थे । कभी विलंब हो जाता और किसी व्यस्तता का उल्लेख करते तो वह अक्सर कहते थे  – चौराहे के कोलाहल में कहानी की रचना करना ही सही मायने में पत्रकारिता है । पत्रकारिता करना है तो हर वक्त कंफर्ट जोन में रहने की आदत छोड़ना होगी ।

दीक्षित जी एक एक स्टोरी पर लंबी सीख दिया करते थे । वे इंट्रो कैसा हो , हेडिंग कैसा हो और खबर का अंत किस मुकाम पर हो रहा है , इसकी बारीकियों को सभी को समझाते थे । वह देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के पत्रकारिता और जनसंचार विभाग के 1984 के दरमियान विजिटिंग प्रोफेसर हुआ करते थे । यदि किसी शिक्षक की कक्षा में सर्वाधिक उपस्थिति हुआ करती थी तो वह दीक्षित जी ही थे । उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि कैंटीन में हम विद्यार्थी उन्हें चाय के बहाने ले जाते और उनके तमाम सीखो को उनके अंदाज में सुना करते थे । उनके साथ वक्त गुजारना हम विद्यार्थी अपना सौभाग्य समझते थे । दीक्षित जी कई बार खुद प्रथम पृष्ठ की टेबल पर कुर्ते की बाहें चढ़ाकर काम करने बैठते और स्वयं पेस्टिंग भी कराते । स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के समय खुद उन्होंने पूरे पेज तैयार किये । प्रथम पृष्ठ पर नव भारत में राष्ट्र ज्योति बुझ गई … शीर्षक उन्हीं का दिया हुआ था ,जिसकी चर्चा उस समय पूरे देश में हुई थी ।

प्रायः शांत और सौम्य रहना दीक्षित जी की शैली का हिस्सा था । वह कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर क्रोध भी किया करते थे । लेकिन वास्तविक तौर पर वह अभिनय ही होता था । अध्यात्म में उनकी शुरू से ही गहरी रुचि थी । बाद में वह ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालय का एक प्रमुख हिस्सा ही बन गए थे । उनका अंदाज दार्शनिक था और वह कोई ना कोई शिक्षा ही देता था । वह रजनीश को खूब पढ़ते थे और उन पर चर्चा भी किया करते थे । जे कृष्णमूर्ति उनके प्रिय दार्शनिकों में से एक थे । रजनीश और कृष्णमूर्ति की कोई ना कोई किताब वे हमेशा अपने साथ रखते थे । जैसे पत्रकारिता की अकादमिक चर्चा में वे कोलाहल में कहानी लिखने की बात किया करते थे उसी तरह दैनंदिनी के कोलाहल और तनाव के बीच दीक्षित जी कभी विचलित नहीं होते थे । आने वाली हर चुनौती का वह मुस्कुरा कर स्वागत करते थे । दीक्षित जी से आजकल के उन संपादकों को प्रेरणा लेना चाहिए जो संपादक कम प्रशासक ज्यादा नजर आते हैं ,वह किसी अफसर की भांति अपने साथी पत्रकारों से पेश आते हैं । दीक्षित जी सदा एक बड़े दोस्त की भूमिका में रहते थे । संभवत यही कारण है कि लंबे समय से किसी पद पर ना रहते हुए भी उनके चाहने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी ।

भारत में मूल्य आधारित पत्रकारिता के विस्तार के लिए वह लंबे समय से प्रयासरत रहे । लगभग पूरे देश में दौरे भी किए और अनेक अनेक स्थानों पर पत्रकारों की कार्यशाला भी आयोजित की । इसके लिए उन्होंने मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति की स्थापना भी की और इन्हीं विचारों को समर्पित पत्रिका का संपादन भी किया । कुछ माह पहले इंदौर के बॉम्बे अस्पताल में इलाज के दौरान उन्होंने इसी पर आधारित उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक पर इस नाचीज के साथ खूब चर्चा भी की । इस दौरान उनके बेटे पत्रकार गीत दीक्षित और उनके शिष्य पत्रकार जितेंद्र शर्मा और सोहन दीक्षित भी साथ ही थे ।दीक्षित जी ना केवल खूब अच्छा लिखते थे उतना ही अच्छा बोलते भी थे । इंदौर में उनके भाषण सुनने के लिए कार्यक्रम स्थल पर विशेष तौर पर उनके लिए ,उनके चाहने वाले आ जाते ।  माउंट आबू में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के मुख्य कार्यक्रमों में जब भी बोलते तो फिर दूसरा कोई मायने नहीं रखता था…. दीक्षित जी के ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ को नियंत्रित करना पड़ता था । इस नाचीज को उनके साथ अनेक यात्राएं करने का अवसर मिला ।

दीक्षित जी अक्सर कहा करते थे – मैं अभी चुका नहीं हूं । यह बात एक दम सही भी थी । वह 80 -82 की उम्र में भी मूल्यों की पत्रकारिता के मिशन पर  सक्रिय रहे । वे कभी घर में नहीं बैठते थे ,फिर कैंसर ही उनसे क्यों ना गलबहियां करता हो……. यात्रा उनका शौक था । सदा सक्रिय और रचना शील रहना उनका स्वभाव था । कहने को दीक्षित जी को कोरोना ने पराजित किया लेकिन ऐसा नहीं है ….. उन्होंने केवल शरीर छोड़ा है … उन्हें कोई कैसे पराजित कर सकता है …..उनके किसी चाहने वाले से उनकी चर्चा  छेड़ कर तो देखिए ……..।

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