…..प्रियंका अद्वैता
दर्द की परतें देख पाती हूँ
जब कभी मुझसे मुँह छुपाते हो
कोई आहट नहीं मगर फिर भी
दिल की दीवार तुम गिराते हो ….
एक जंगल सा है विचारों का
खुद में ही कुछ उलझते जाते हो ….
रूह की रोशनी ही काफी है
क्यों किसी दिल को तुम जलाते हो…
नब्ज़ ही डूबने लगे जब ये
खामखां वैद्य क्यो बुलाते हो….
याद की मिट्टी अब भी सौंधी है
धूप को क्यूँ नहीं बताते हो….
आईना हमसे बात करता है
और तुम यूँ नज़र चुराते हो…।।।
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