प्रियप्रिया की संपन्नता के सम्मुख धनपति भी अकिंचन से…

( मैंने देखा वो प्रेम)

यशोधरा भटनागर

बसंत!ऋतुराज बसंत!संपूर्ण वैभव से अलंकृत पीतांबरा धरा!मदमस्त बासंती बयार! क्षिप्रा नदी का तट ! दूर-दूर तक अपना ममता पगा नीला आंचल लहराती मां क्षिप्रा ! मां क्षिप्रा की गोद में क्रीड़ा करती जलमुर्गियां और श्वेत-धवल बगुले! और दूर-दूर तक हरी पीली ओढ़नी ओढ़े वसुंधरा का अद्भुत श्रृंगार ! नेत्र बरबस सौंदर्य में बद्ध होकर रह गए ।अवश, अथकित, निष्पलक उस अद्भुत -अपूर्व सौंदर्य को निहारते हुए हृदय पुलक से भर उठा।

कतारबद्ध खड़े नीम,अमलतास, पीपल और उच्चाकांक्षी खजूर के वृक्ष,बौराए रसाल,केसरिया किंशुक और दूर तक तिरता कोकिल गान।सामने ही कल- कलनाद करती सलिला -धारा।

राष्ट्रीय मार्ग NH3 गहमागहमी से पूर्ण ।वाहनों की आवाजाही और भागम -भाग को पीछे छोड़ ,चार बांसों पर बंधी बरसाती ! छोटी- छोटी टपरियां ! और सुलगती ,अंगार बनी लकड़ियों पर सिकते बारहमासी  भुट्टों की सौंधी-सौंधी गंध।रसना पर स्वामित्व स्थापित कर ,वाहनों की गति थाम लेती !  हम भी कैसे छूटते ? प्रकृति के आंचल को थामने का अच्छा  सहज, सरल शुभ अवसर और कहां ? बासंती बयार में मदमस्त हम भी भुट्टे की सौंधी- सौंधी सुगंध गृहीत करते,एक टपरिया के पास रुक गए। पर दृष्टि केंद्रित हो गई बांस के.पंखे से अंगारो को दहकाती  ,हरी-लाल चूड़ियों सजी,गोरी-गुलाबी कलाइयों पर..।   अंगारों के प्रकाश से ,उसके दमकते मुख पर दृष्टि आबद्ध हो गई ..लावण्यमय,गौर वर्णी ,सलोना मुख,बड़ी ,गोल लाल बिंदी सज्जित भाल। अद्वितीय आभा से दीप्तिमान मुख पर खेलती सरल, निश्छल मुस्कान लिए ,वह भुट्टे सेक रही थी । मुख  पर अपरिमित संतोष ,तृप्ति उसे अनूठापन प्रदान कर रहा था ।

तभी तीस -बत्तीस साल का एक युवक उस छोटी सी टपरिया में आकर बैठ गया और उसके हाथ से पंखा ले ,स्वयं भुट्टे सेकने  लगा ।मैंने आश्चर्य और प्रश्न भाव से युवती की ओर देखा..।उसके गुलाबी आभा सज्ज मुख पर लज्जा का भाव तिर गया….।सस्मित -सलज्ज मेरी ओर देखते हुए बोली -‘ मेरा मरद है , मजूरी करि के अइ रिया है…।’ अपनी पत्नी की बात सुनकर  युवक मुस्कुराते हुए प्रेम पगे स्वर में बोला..

‘ सुबह से भुट्टा सेकी-सेकी थाकी गी होगी ,अबै हूं करि दूं…।’ वह लजा कर , कुछ उमग कर,कुछ हुलस कर, मुस्काई और खिलखिलाकर हंस पड़ी।फिर साड़ी के पल्लू को दांतों में दबा ,लज्जा से गढ़ गई..।

दोनों के इस पवित्र प्रेम की साक्षी बनी मैं अंदर तक भीग गई । कैसा सच्चा प्रेम ! अनमोल ! अलभ्य ! शायद धनपति,कोटि पति, अरबपति भी इस प्रियप्रिया की संपन्नता के सम्मुख अकिंचन से प्रतीत हो..! मेरे नेत्र उमग पड़े..।प्रेम का एक अद्वितीय सात्विक संसार..! आत्मविस्मृति… !प्रेम की इस अभिव्यक्ति पर सौ वेंलेटाईन डे कुरबान!!!

मैडम जी !भु्ट्टा में नींबू -मसाला लगाई दूं..?तंद्रा टूटी..।हां लगा दो..।शीघ्र ही कोमल हरे पत्तों पर सजा भुट्टा मेरे हाथों में था..।भुट्टे की सौंधी गंध का सौंधापन अब जिह्वा को नहीं ,आत्मा को तृप्त कर रहा था…।

कितना हुआ ? चालीस रुपए… ।बीस-बीस के दो नोट उसके हाथ में थमाते हुए … खूब खुश रहो!  मेरे मुख से स्वतः प्रस्फुटित हुआ..!

खुशी का बांकपन गहरे पैठ गया…।यही तो  सच्ची खुशी है…, सच्चा -अभूत सुख। ओह!भौतिकता में मज्जित हम खुशियों की परिभाषा ही बिसरा बैठे हैं।

    छिन्न पात्र ले कंपित कर में,

     मधु भिक्षा की रटंत अधर पे…।

गहरी श्वास ली..।पवित्रता और ताजगी सांसों के साथ भीतर तक उतर गई।बसंत की प्रेमोष्मा से अंतर घट ऊष्मित हो गया।

1 Comment

  • Amit Saxena, February 22, 2021 @ 4:02 am Reply

    बहुत ही सुंदर वर्णन, आंखों के सामने साक्षात दृश्य उपस्थित हो गया, बहुत ही अच्छा वर्णन।

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