हाल ही में इंदौर में संपन्न इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल 2021 के अंतर्गत आयोजित स्लो स्टोरीज कहानी लेखन प्रतियोगिता में अर्चना मंडलोई  की कहानी मेज के उस पार की कुर्सी  को द्वितीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।

अर्चना  मंडलोई

साहित्यिक उपलब्धि : मालवी बोली के संरक्षण व संवर्धन हेतु मालवी नाट्य मंचन ,अभिनय ,लेखन, पत्र -पत्रिकाओं में रचना प्रकाशन, अनेक साहित्यिक संस्थाओं की सदस्य ,सामाजिक गतिविधियों में सहयोग.

-दो साझा संग्रह प्रकाशित

पुरस्कृत कहानी –

मेज के उस पार की कुर्सी

सुनो, आज भी मैं खिडकी के पास रखी कुर्सी पर बैठी हूँ। बाहर बगीचे में ओस से भीगा आँवले से लदा पेड हरे काँच की बूँदों सा लग रहा है।इन दिनों गुलाब में भी बहार आई हुई है । सुर्ख लाल गुलाब पर मंडराती रंग-बिरंगी तितलियां  मौसम को और भी खुशनुमा बना रही है।

मौसम भी इस बार कुछ ज्यादा ही उतावला है नवम्बर में ही गुलाबी ठंड ने दस्तक दे दी है।  ये गर्म  कॉफी मुझे अब वो गर्माहट नहीं देती क्योंकि मेज के उस पार खाली कुर्सी और कॉफी मग का वो रिक्त स्थान तुम्हारी कमी महसूस करवा रहा है।

मै अपनी बेबसी ठंडी कर कॉफी के हर घूँट के साथ पीती जा रही हूँ ।

जानते हो ये हवा जो ठंड से भीगी हुई है,ये अब भिगोती नहीं है।भीगना और गीले होने का अंतर तुम्हारे बिना समझ में आया।

मैं हथेलियों की सरसराहट से उस गर्माहट को महसूस करना चाहती हूँ ,जो कभी तुम्हारी हथेलियों ने थाम कर गर्माहट की नमी दी थी।आज भी मेरी लकीरों में वो नमी जिंदा है….

हाँ पर….. तुम्हारे बिना हथेलियां अब भी ठंडी है।

हमारे बीच पा लेने या खो देने का रिश्ता कहाँ रहा ! इन दोनों के बीच खुद को खोकर पा लेना मेरे लिए दुखद नहीं बल्कि सुख को पा लेना  तो हुआ।

वक्त रिश्ते और जिन्दगी कहाँ ठहरती है… धीरे-धीरे फिसलते गये हाथ से रिश्ते ,गर्माहट और ….

पहली बार मिले थे झिझक के साथ … शैक हेण्ड …… वही गर्माहट …

फिर पसंद ना पसंद की लंबी फेहरिस्त बनती गई ।

तुम ठहरे मशीनों से खेलने वाले टेक्निकल …। और मैं रस्किन बाँड की कहानियों से लेकर महादेवी वर्मा की कविताओं की दीवानी।

पर अब पसंद- नापसंद गडमड सी हो गई मैं मशीनों के पुर्जे और खटपट पहचानने लगी और तुम शब्दों के जादूगर

मैं अपने मन का सारा कुछ उडेल देती बक-बक करती और तुम ध्यान से सुनते।

तुम्हारी आंखों से झरते अनकहे सवाल मुझे झकझोर देते ,तब मेरी सारी शब्दशक्ति खो जाती ।

सुख की पहली सौगात थी वो जब तुमने कहा था … क्या हम साथ में कॉफी पी सकते है?   मेरी सोच उस दायरे की नहीं थी.. मुझे कहाँ अधिकार था !

हाँ तुम्हारी जिद ने मेरे होंठों से कहलवा ही लिया ।

किश्त दर किश्त सुख के वो क्षण में सहेजती गई।

खिडकी के पार हरे काँच से जडे आँवले पत्तियों विहीन पेड पर अपनी तरह से मुझे मुंह चिढ़ा रहे है। हाथ लंबा कर यादों की उँची फुनगी पर बैठे तुम… हाँ तुम जिसे मै पकडने का भरसक प्रयास करती हूँ ।कभी समंदर के किनारे गीली रेत पर हाथ थामे बैठना ,दौडकर लहरों को पकडना ,बर्फ के गोलो को तुम्हारे बाजुओं पर उडेल देना ,बेमतलब रास्तों पर चलना ,हवाओं के साथ बहते थे मन के रागों की स्वर लहरियां … अब वही अंतहीन यादें।

ख्वाबों की पीठ पर तुम्हारा नाम लिख चुकी थी मै… जानती थी खुशियों की उम्र लंबी नहीं होती । अंजाने भय अक्सर मेरे सिरहाने करवट बदलते रहते।

हाँ, तुम हमेशा से परफेक्ट और काँन्फिडेंट रहे तब भी और आज भी ।

सुनो मौसम फिर लौट आया है .हाँ लेकिन उन दिनो का मौसम लौटकर नहीं आता ।मुझे ही उम्मीद से उन बीते मौसमों को मुड़-मुड़ कर देखते रहना है।

आज भी ओस की बूँदे जमी है।खिडकी के उस पार मुहाने से मै लगातार तक रही हूँ … पर वो मुझे भिगो नहीं पायी।बीते वक्त के मौसम भी कहाँ लौटे है…

पर सुनो… तुम आज भी वैसे ही हो परफेक्ट और काँन्फिडेंट ।

( 9406616871)

4 Comments

  • Archana Mandloi, February 12, 2021 @ 6:11 am Reply

    Thank you for your appreciation and support to publish this story.

  • मंजुला भूतड़ा, February 12, 2021 @ 6:25 am Reply

    हार्दिक बधाई , अर्चना जी

  • Sangeeta Tomar, February 12, 2021 @ 6:54 am Reply

    Sunder abhivyakti

  • रमेश गुप्ता, February 12, 2021 @ 4:31 pm Reply

    शब्दों की जादूगरी,मौसम कॉफी व आंवले का पेड़ ,सब कुछ नदी के प्रवाह जैसा कथन ।
    अत्यंत सुंदर ।साधुवाद ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *