भानू चौबे

चुनाव खर्च के मामले में मतदाता की जिम्मेदारी से भी इनकार नहीं किया जा सकता है । मतदाता जागरूक और सचेत बने तो खर्चीले प्रचार की जरूरत शायद खत्म हो सकती है।

गरीय निकायों के चुनाव जल्दी होने वाले हैं। संकेत है कि इनमें चुनावों में भी खर्च पर नजर रखने के बारे में चर्चा निर्णायक दौर में है। चुनाव में प्रत्याशी द्वारा खर्च किए जाने वाले धन की सीमा तय करने का मसला जिस तरफ से देखेंगे उसके अनुरूप/अनुकूल दिखाई देगा । चुनाव आयोग और शासन मानता है कि चुनाव खर्च की सीमा तय की जानी चाहिए क्योंकि इससे समर्थ और असमर्थ के बीच चुनाव के समान अवसर को सुनिश्चित किया जाता है। वह यह भी मानता है कि इससे अंधाधुंध खर्च पर रोक लगती है। लेकिन दूसरी तरफ यह मसला ऐसे उदाहरणों में से एक मालूम होता है जिसमें जो कहा जाता है, वर्तमान स्थिति उसके विपरीत होती है। गिलास आधा भरा है, आधा खाली है। चुनाव खर्च की सीमा तय करने का औचित्य इस उद्देश्य का है कि चुनाव में रईस और गरीब समान अवसर के साथ चुनाव लड़ सकें। धन की भूमिका को चुनाव में खत्म करने के कई प्रयास सत्ता करती रही है।  लेकिन सत्ता ही चुनाव खर्च की सीमाओं में वृद्धि के चुनाव आयोग के प्रस्ताव अमूमन स्वीकार ही करती है। लेकिन यह भी उसी तरह सच है जिस तरह नन्हें नागरिकों/ भावी मतदाताओं को स्कूली पाठ्यक्रम में प्रेरक, देशभक्ति और श्रेष्ठ आचरण के  पाठ पढ़ाए जाते हैं लेकिन वयस्क हो कर जब वे व्यवस्था से रूबरू होते हैं तो उन्हें वह स्थिति उल्टी नजर आती है । इसके पहले लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में धन खर्च की सीमाएं तय की जा चुकी है। समय-समय पर उन्हें बढ़ाया जाता रहा है ताकि मतदाताओं की बढ़ती संख्या, बढ़ते क्षेत्रफल और मुद्रास्फीति का ध्यान रखा जा सके । रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट 1951 कानून है लेकिन हर एक कानून को व्यवहार में लाने के लिए नियम बनाने होते हैं। नीति निर्माता विधायिका कानून बनाती है लेकिन नियम सरकार और उसकी नौकरशाही बनाती है। जनप्रतिनिधित्व कानून के नियम ” इलेक्शन रूल्स 1960″ इसी तरह बनाए गए हैं। इसमें संशोधन भारत सरकार करती है।इस नियम के तहत ही चुनाव खर्च की सीमाएं तय की जाती हैं और उन्हें समय के साथ बढ़ाया जाता है। कम होने का तो कभी सोचा ही नहीं गया है। दूसरी तरफ चुनाव में किए जाने वाले खर्च की वास्तविक स्थिति का पता लगाने का कोई प्रभावी उपाय अभी तक नहीं मिला है। यह ” लगभग” और अनुमानित ही मिलता है। यह सवाल अपनी जगह उचित है कि यदि चुनाव लोकतांत्रिक हैं तो उनमें लाखों रुपए की चुनाव खर्च सीमा का क्या औचित्य है और चुनाव में धन की बात ही क्यों की जाती है। आदर्श स्थिति के विपरीत एक व्यवहारिक स्थिति होती है जिसके तहत काम होता है। चुनाव खर्च के बारे में चुनाव आयोग तो केवल भारत सरकार को सिफारिश भेजता है। लेकिन चुनाव खर्च के मामले में मतदाता की जिम्मेदारी से भी इनकार नहीं किया जा सकता है ।मतदाता जागरूक और सचेत बने तो खर्चीले प्रचार की जरूरत शायद खत्म हो सकती है। इस दिशा में कुछ प्रयास हुआ है लेकिन बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है। दूसरा बिंदु भ्रष्टाचार का है और भ्रष्टाचार कितना निरंकुश होता है कितना निर्भय होता है और कितना निर्बंध होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। फिर भी आजादी के, स्वशासन के 71 सालों के बाद भी यह वादा मतदाता से किया जाता है कि हम आप को भ्रष्टाचार मुक्त शासन उपलब्ध कराएंगे। (इंडिया डेटलाइन)

(लेखक इंदौर नईदुनिया में वरिष्ठ सह संपादक रहे हैं।)

1 Comment

  • Dr Swati Jain, January 21, 2021 @ 10:19 am Reply

    सबसे पहले तो प्रत्याशी ही सुशिक्षित, योग्य और संस्कारी हों !

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