शरत में न कवीन्द्र-रवीन्द्र सी अतीन्द्रीय अनुभूति है न संस्कार और न बंकिम सा समाज सुधार का आग्रह। लेकिन शरत के हाथों में कोई जादू था कि उनका स्पर्श पाकर धरती की धूल भी महिमामयी हो उठती थी। कोई शास्त्र, कोई विधान उनके लिए मनुष्य से बढ़कर नहीं था।
उषा चौकसे
अंग्रेजी और हिन्दी साहित्य में एम.ए.। लम्बे अरसे तक अध्यापन व अखबारों में स्तम्भ-लेखन तथा वृत्तचित्र लेखन के साथ ही रेडियो के लिए भी अनेक कहानी,नाटक और वार्ता लिख चुकी हैं। राज कपूर की पुत्री ऋतु नंदा द्वारा संकलित व संपादित राज कपूर श्रृंखला की पुस्तकों का एवं ऋषि कपूर लिखित पुस्तक ‘खुल्लम-खुल्ला’ का अनुवाद कर चुकी हैं । भावना सोमैया द्वारा लिखित ‘अमिताभ बच्चन’ पुस्तक की सह-अनुवादक रह चुकी हैं।आज भी सक्रिय लेखन में व्यस्त।
अमर कथा शिल्पी शरतचंद्र का निर्वाण दिवस 16 जनवरी को साहित्य जगत में शिद्दत से मनाया जाता है। वे मूलतः बांग्ला के लेखक थे पर सम्पूर्ण भारत में शायद ही ऐसा कोई साक्षर व्यक्ति होगा जिसने शरत साहित्य को न पढ़ा हो और एक न एक कृति को सराहा हो।अनगिनत भारतीय स्त्रियों ने उनके पात्रों में अपनी झलक देखी और अपने समान अवमानना,व्यथा और विडम्बना भुगती उन स्त्री पात्रों को भरपूर सहानुभूति दी ।जीवन के अंतिम दिनों में देशव्यापी सम्मान पाने वाले सृष्टा ने 16 जनवरी 1938 में प्राण त्यागे किन्तु अपने जीवन के अधिकांश भाग वे तिरस्कार, अवमानना,उपेक्षा का गरलपान कर संसार को अमृत बांटते रहे।उनके पात्रों की पीड़ा काल्पनिक नहीं वास्तविक है।
शरत की नायिकाएं विशेष महिमा से मंडित हैं
भारत की स्त्रियाँ शरतचंद्र की चिर ऋणी हैं।वे हर तिरस्कृत,उपेक्षित और पीड़ित के प्रवक्ता थे और इसी कारण स्त्रियाँ उनकी सहज सहानुभूति की पात्र एवं उनकी कथाओं की केंद्र-बिंदु बनीं।यह संयोग नहीं है कि शरत-साहित्य स्त्री प्रधान साहित्य है।शेक्सपीयर की तरह ही उनकी नायिकाएं एक विशेष महिमा से मंडित हैं,चाहे वे “देवदास” की वेश्या चंद्रमुखी हो अथवा “गृहदाह” की पति को छोड़कर पर-पुरुष के साथ चली जाने वाली अचला।यह सच है कि शेक्सपीयर की नायिकाओं की तरह न वे आभिजात्य हैं और न मुखर पर उन साधारण सी औरतों में ऐसा कुछ है जो मन पर गहरी छाप छोड़ता है।
उनका साहित्य अपरिभाषित खालीपन सालता रहता
शरत में न कवीन्द्र रवीन्द्र सी अतीन्द्रीय अनुभूति है न संस्कार और न ही बंकिम सा समाज सुधार का आग्रह।पर शरत के हाथों में कोई जादू था कि उनका स्पर्श पाकर धरती की धूल भी महिमामयी हो उठती थी।कोई शास्त्र,कोई विधान उनके लिए मनुष्य से बढ़कर नहीं था।उनहोंने स्वयं कहा था,”मैंने तो मनुष्य के अंतर में छिपी हुई मनुष्यता को,उस महिमा को,जिसे सभी नहीं देख पाते नाना रूपों में अंकित करके प्रस्तुत किया है।”बांग्ला साहित्य में रुलाने वालों की कमी नहीं,शरत भी रुलाते हैं किन्तु उनका रुलाना केवल आंसू तक सीमित नहीं,कभी-कभी तो आंसू आते भी नहीं,किन्तु ह्रदय को लम्बे समय तक एक अपरिभाषित खालीपन सालता रहता है।सामाजिक अन्याय के विरुद्ध कोई सीधा प्रहार शरत साहित्य में ढूंढना मुश्किल है|सामाजिक परम्पराओं को भी उन्होंने तोड़ा नहीं।उनकी “पल्ली समाज”की विधवा रमा रमेश को न पा सकी और इसी कारण “चरित्रहीन” की लांछित सावित्री स्वयं सरोजिनी का हाथ सतीश को सौंप कर भार मुक्ति का अनुभव करती है|परन्तु इन सभी कथानकों की गति में ही ऐसे कुछ तत्व अंतर्निहित हैं कि पाठक स्वतः सामाजिक अन्याय के प्रति सचेतन हो उठता है।स्वानुभूति के अमर कोष से प्रसूत उनके सैंकड़ो पात्र भाग्य और समाज की प्रवंचनाओं में ऐसे फंसते हैं कि बिना कहे बहुत कुछ कह जाते हैं।अनुभूति की इसी मार्मिकता और अभिव्यक्ति की सुमधुर भंगिमा के कारण वे अल्पशिक्षिता से उच्चशिक्षिता तक के ह्रदय का हार बन सके।
सभी भारतीय भाषाओं में शरत ही वे अकेले साहित्यकार हैं जिनके उपन्यासों पर सर्वाधिक फ़िल्में मात्र बनीं ही नहीं वरन व्यावसायिक रूप से सफल भी रहीं।देवदास,बड़ी दीदी,परिणीता,बिराज बहू,स्वामी,छोटा भाई पर बनी फ़िल्में दर्शकों के दिलों को जीत चुकी हैं।18 वर्ष की उम्र से अपनी माँ से बिछड़ी उनकी आत्मा माँ शब्द में निहित कोमलता व त्याग अपने नारी पात्रों में खोजती रही।उनकी अधिकाँश मानस पुत्रियाँ चाहे वह नारायणी,विन्धेश्वरी या हेमांगिनी कोई भी हो अपना वात्सल्य अपने पेट जाए के अतिरिक्त पराई संतान पर भी अजस्त्र और सहज रूप से लुटाती हैं।ये सब कोई धीर-वीर नायिकाएं नहीं हैं,वे सामान्य स्त्रियाँ हैं पर उनकी यही सहज मानवीयता उनको उदात्त बना देती है।
इर्द-गिर्द बिखरे सत्य को पहचानने की नई दृष्टि दी
शरत के विषय में बात करते समय हमें यह याद रखना होगा कि उस समय पूरा भारत तो गुलाम था ही और स्त्रियाँ थी गुलामों की गुलाम।गांधी युग की लहर अभी शुरू ही हुई थी।उस युग में नारी शब्द के उच्चारण में भी एक-एक वर्ण में मानो लाखों-लाख धिक्कार भरे थे।उस सामंतवादी युग में जब स्त्री भोग्य और सजावट की वस्तु से अधिक नहीं थी स्त्रियों को केन्द्रित कर दर्जनों कथा और उपन्यासों का सृजन कोई मामूली बात नहीं है।आज नारी मुक्ति के आन्दोलन और आयोजन लगातार होते रहते हैं,उनको कानूनी और सामाजिक न्याय दिलाने के कई उपक्रम चल रहे हैं पर तब पूरे भारत में और विशेषतया बंगाल में स्त्री घर की चौखट भी अकेली पार करने का दुस्साहस नहीं कर सकती थी,स्त्री शिक्षा आभिजात्य वर्ग की चंद स्त्रियों का विशेषाधिकार था।नारी जब एक आवश्यक बुराई के रूप में ही स्वीकारी जाती थी,उसकी पहचान का तो प्रश्न ही नहीं था।सतीत्व का हौवा हर स्त्री पर हावी था,तब शरत वह पहले लेखक थे जिन्होंने उच्च स्वर में घोषणा की कि-“पुरुष हो या स्त्री,गिरकर उठने का रास्ता सबके लिए खुला रहना चाहिए।नारी को केवल शरीर मानने वालों के लिए यह एक खुली चुनौती थी और उन्होंने शरत को प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी पर शरत चुपचाप उस अपमान को पी गए और करुणा सिंचित पात्र उनकी लेखनी से बाहर आते गए।सन 1960 से आज तक अगणित परिचर्चाएं साहित्य में भोगे हुए यथार्थ पर हो चुकी हैं पर उससे बहुत पहले 1876 में बंगाल के एक छोटे गाँव में जन्में शिल्पी की हर पुस्तक उसके जीवन का एक पृष्ठ है। शरत ने नया कुछ नहीं कहा पर हमारे इर्द-गिर्द बिखरे सत्य को पहचानने की नई दृष्टि जरूर दी।
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