भानू चौबे
50 दिनों से राजधानी की सीमाओं पर चल रहा किसान आंदोलन किस मोड़ पर जाकर रुकेगा, कहा नहीं जा सकता है। नए घटनाक्रम वैसे तो अपेक्षित कहे जाते हैं लेकिन व्यवस्था में विश्वास करने वालों के लिए यह चौका देने वाले घटनाक्रम है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा मध्यस्थ की पहल करते हुए जिस कमेटी का गठन किया गया था, उसके एक प्रमुख सदस्य भूपेंद्र सिंह मान किसानों के समर्थन में समिति छोड़कर बाहर आ गए हैं। समिति बनाने में यह सुनिश्चित करना स्वाभाविक रूप से अदालत की जवाबदेही में शामिल होता है कि उसमें अविश्वास से दरार ना पड़े। चूक कहां हुई है, जिम्मेदार कौन है यह देखना शासन का अपने पक्ष के तौर पर आवश्यक है।
सरकार के साथ अनेक दौर की बातचीत विफल हो जाने के बाद शायद 15 जनवरी 2021 को प्रस्तावित बातचीत सफल हो जाए लेकिन वातावरण उतना अनुकूल नहीं दिख रहा है। इसका एक बड़ा सबूत है किसानों का ट्रैक्टर रैली शक्ति प्रदर्शन पर अड़े रहना। समिति के प्रस्ताव को लगभग ठुकरा दिए जाने से किसान आंदोलन के समाधान का एक बहुत आशापूर्ण रास्ता बंद हो गया है। पहले से अधिक कठोर गतिरोध की आशंका के चलते ही यह कहना कठिन है कि लगभग 50 दिनों का यह अभूतपूर्व किसान आंदोलन अब किस निष्कर्ष पर जाकर रुकेगा।
इतने लंबे समय तक आंदोलन के चलने के बावजूद उसमें विकृतियों की गुंजाइश नहीं के बराबर बनी रही, इसे एक उपलब्धि कहा जा सकता है। लेकिन आंदोलन को अनिश्चित काल तक इतनी ही ऊर्जा के साथ चलाना आसान नहीं है। अभी ऐसे किसी आसान सुझाव से सफलता के आसार दिखाई नहीं देते हैं। अगले 24 घंटों में ऐसे आसार बन जाएंगे ऐसा वातावरण दिखाई नहीं देता है। फिर भी आशा की जानी चाहिए कि बातचीत का यह दौर सफल हो और किसान आंदोलन को एक सम्मानजनक निष्कर्ष तक पहुंचाया जा सके क्योंकि यह जनहित का भी मसला था।
यह लगभग वह समय है जब किसान आंदोलन के बारे में किसी नीतिगत निर्णायक स्थिति तक पहुंचना आवश्यक है। जन आंदोलन जिसे सुप्रीम कोर्ट भी अब और अधिक समय तक चलने नहीं देना चाहेगी। यह देखा जाना आवश्यक है कि किसान और सरकार किसी सर्व सम्मत सहमति पर साथ आए। चूंकि अब कांग्रेस ने खुले रूप से किसान आंदोलन के समर्थन में कदम आगे बढ़ा दिया है तो यह आशंका और बलवती हुई है कि आने वाले दिनों में किसान आंदोलन के साथ एक केंद्र विरोधी राजनीतिक आंदोलन की सुगबुगाहट पनप सकती है ।कुल मिलाकर किसान आंदोलन का शीघ्र सम्मानजनक समापन हो जाए यह अभी सबसे बड़ा जनहित है। इस समय देश की राजधानी में गणतंत्र दिवस पर समानांतर ट्रैक्टर रैली निकालने के लिए किसान आंदोलन के इरादे ने आंदोलन में तनाव के नए स्तरों को देखा है। देखना होगा कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और गण के बीच समाधान की लकीरें कैसी खिंचती है और उनके परिणाम क्या निकलते हैं। लेकिन केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा की कृषि नीति की एक बड़े वर्ग ने जिस स्तर पर विरोध किया है वह सरकारी चिंता का विषय होना चाहिए था। यह प्रशासकीय किस्म से अधिक राजनीतिक और लोकतांत्रिक ढंग से देखा जाना चाहिए। शायद यह दौर सकारात्मक रूप से निर्णायक सिद्ध हो लेकिन नीतिगत स्तर पर बहुत कुछ किया जाना शेष है । पहले आंदोलन का समापन हो ।
( भानू चौबे नईदुनिया इंदौर में वरिष्ठ सह संपादक रहे हैैं।)
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